( चित्र गूगल से साभार )
प्रतिध्वनि
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शनिवार, 25 जनवरी 2025
वटवृक्ष ओर जूहीलता
( चित्र गूगल से साभार )
काश !
"माँ, नदी देखने चलोगी ?"
मेरे बीस वर्ष के बेटे ने ये सवाल किया तो लगा सचमुच वह बड़ा हो गया है । वह अच्छी तरह जानता है मुझे नदी देखना कितना अच्छा लगता है।
बारिश के मौसम में उफनती नदी को देखना ऐसा लगता है मानो किसी ईश्वरीय शक्ति का साक्षात्कार हो रहा हो । रेनकोट पहनकर मैं तुरंत तैयार हो गई । तेज बारिश हो रही थी। दस मिनट में हम पुल पर थे जिसके नीचे से उल्हास नदी अपने पूरे सौंदर्य और ऊर्जा के साथ प्रवाहमान हो रही थी ।
"बाबू , चल ना दो मिनट किनारे तक चलें, कोई रास्ता है क्या
नीचे उतरने का ?" मैंने पूछा।
"हाँ , है तो । लेकिन सिर्फ दो मिनट क्योंकि इस समय काफी सुनसान रहता है वहाँ नीचे। पुल के ऊपर से आप चाहे जितनी देर देख लो ।"
पुल से नीचे उतरने वाली ढलान पर गाड़ी रोक कर लॉक की और हम नीचे उतर कर नदी के किनारे खड़े हो गए ।
उस वक्त नदी में कल-कल का संगीत नहीं था, घहराती हुई गर्जना थी .. तभी कुछ दूरी पर किनारे बैठे युवक की ओर ध्यान खिंच गया । वह घुटनों में सिर छुपाए बैठा था । दीन - दुनिया से बेखबर !
मैंने बेटे की ओर देखा लेकिन मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरा समझदार सुपुत्र बोल उठा, "बस, अब आप कुछ कहना मत । वह लड़का वहाँ क्यों बैठा है, कौन है , ये सब मत पूछना प्लीज.. अब जल्दी चलें यहाँ से।"
"लेकिन वह अकेला क्यों बैठा है ? डिप्रेशन का शिकार लग रहा है बेचारा।"
"कुछ नहीं डिप्रेशन - विप्रेशन । ये अंग्रेज चले गए डिप्रेशन छोड़ गए । जिम्मेदारियों से भागने का सस्ता और सरल उपाय! बस डिप्रेशन में चले जाओ । आप नहीं जानतीं। ये चरसी या नशेड़ी होगा कोई । आप चलो अब ।"
"अरे , मैं नहीं बात करूँगी, तू तो एक बार पूछ कर देख। शायद उसे किसी मदद की जरूरत हो ।"
"नहीं ममा, आप चलो अब । बारिश बढ़ गई है और यह जगह
कितनी सुनसान है ।" अब बेटे के स्वर में चिढ़ और नाराजगी साफ जाहिर हो रही थी ।
मजबूर होकर मैं घर चली आई । घुटनों में सिर छुपाए बैठा वह लड़का दिमाग से निकल ही नहीं रहा था ।
अगले दिन.....सुबह सैर के लिए निकली । पड़ोस के जोगलेकर जी हर सुबह नदी किनारे तक सैर करके आते हैं । मैं नीचे सड़क पर आई तो वे मिल गए । हर रोज की तरह प्रफुल्लित नहीं लग रहे थे । मैंने पूछा -- "क्या बात है भाई साहब, तबीयत ठीक नहीं है क्या ?"
थके से स्वर में बोले, "क्या बताऊँ, सुबह-सुबह इतना दुःखद दृश्य देखा । नदी से दो लाशें निकाली हैं पुलिस ने । एक लड़के और लड़की की । आत्महत्या का मामला लग रहा है ।"
मेरा सिर चकरा गया । घुटनों में सिर छुपाए वह लड़का आँखों के सामने घूम गया । कहीं वही तो नहीं.....
जिंदगी में अनेक बार ऐसे प्रसंग आए हैं जब घटना घटित हो जाने के बाद सोचती रह गई हूँ --
काश.......
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एक रोमांचक अनुभव
जब हम बने सर्पमित्र
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जब हम बने सर्पमित्र ! |
दोपहर 1.30 बजे स्कूल से लौटी। बिल्डिंग के नीचे पार्किंग एरिया दोपहर के वक्त खाली होता है, वहीं से गुजरकर लिफ्ट की ओर बढ़ते समय पाया कि 12 से 15 वर्ष के चार लड़के एक कोने को घेरकर बड़े ध्यान से कुछ देख रहे हैं।
उत्सुकतावश वहाँ जाकर देखा तो पाया कि बच्चों ने कोने में दीवार का आधार लेकर दो साइकिल लगा रखी थीं और उनके पीछे ठीक कोने में साँप !
साँप गोलमटोल गठरी सा होकर कोने में पड़े पत्थर के पास गहरी नींद का आनंद ले रहा था और बच्चे 'मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाय, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाय' वाली मुद्रा में चर्चा कर रहे थे।
मैंने बच्चों को दूर किया और वाचमैन को बुलाया। वाचमैन काका सीधे एक बड़ा सा पत्थर पटककर साँप का क्रियाकर्म कर देने के पक्ष में थे, मैं उसे पकड़कर कहीं दूर छोड़ देने के पक्ष में थी, लड़के मेरे पक्ष में हो गए थे। साँप जी हमारे इरादों से बेखबर स्वप्नलोक में खोए रहने के पक्ष में थे।
इस कॉलोनी को बने हुए अभी तीन वर्ष ही हुए हैं और मुझे यहाँ आए दो वर्ष। पाँच सात साल पहले तक इस जमीन पर घने पेड़ पौधे थे जिन्हें हटाकर यह बस्ती बसाई गई। साँप हर बारिश में निकलते रहते हैं यहाँ, पीछे का परिसर अब भी जंगल सा ही है।
वाचमैन ने कहा,"मैडम, अब तक पाँच मार चुके हैं हम! आपको क्या पता, आप तो सुबह जाते हो रात को लौटते हो।" मैं - "हाँ काका, मारे होंगे आपने पाँच पर ये तो मेरे सामने आ गया। मैं कोशिश करती हूँ कि कोई इसे पकड़कर दूर छोड़ दे।"
मैंने शैलेश सर को फोन किया जो क्लासेस में विज्ञान पढ़ाते हैं। शायद उनके पास किसी सर्पमित्र (snake rescuer) का नंबर हो। सर ने पाँच मिनट में ही एक सर्पमित्र का नंबर मैसेज किया। उसे फोन करने पर पता चला कि वह बाहर है और कल लौटेगा।
अब मैं क्या करूँ? साढ़े तीन बजे मुझे क्लासेस जाना था। उसके पहले खाना बनाना और खाना भी था। तभी मेरा बेटा अतुल कालेज से लौट आया। अब मेरे पक्ष में पाँच लोग हो गए।
इस बीच वहाँ से दो तीन महिलाएँ गुजरीं और वाचमैन को साँप मारने का निर्देश देकर चली गईं। साँप की प्रजाति पर भी अटकलें लगाईं गईं।
अब हमने स्वयं ही सर्पमित्र बनने का निश्चय कर लिया।
मैं साँप को अतुल के भरोसे छोड़कर घर गई और एक ढक्कन वाली बास्केट, एक कॉटन की चादर और एक झाड़ू लाई। उस वक्त यही समझ में आया।
आसपास इतनी हलचल होने पर भी साँप का यूँ सोते रहना असामान्य बात थी। कहीं मरा हुआ तो नहीं? एक रिस्क ली। झाड़ू के पिछले डंडे से साँप को स्पर्श किया तो वह थोड़ा सा हिलकर फिर शांत हो गया, जैसे छोटे बच्चे माँ के जगाने पर 'उँहूँ ! अभी नहीं !' कहकर करवट बदलकर फिर सो जाते हैं।
तब तक अतुल ने वाचमैन का डंडा लिया।आसपास निरीक्षण करने पर एक धातु का तार पड़ा मिल गया। तार को मोड़कर हुक की तरह बनाकर डोरी से डंडे के सिरे पर बाँधा गया। तब तक लड़कों ने साँप के फोटो, वीडियो खींच लिए। वाचमैन 'ध्यान से, सावधानी से' कहता जा रहा था।
अतुल ने टोकरी को साँप के पास आड़ी पकड़कर हुक से साँप को झट से उठाकर टोकरी में डाल दिया और मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला - "अरे वाह !" टोकरी का ढक्कन तुरंत बंद कर दिया गया। टोकरी के हिलते ही साँप महाशय अपनी गहन निद्रा से जाग गए और पूरा शरीर खोलकर दिखाया - देखो, इतना भी छोटा नहीं मैं !
बंद टोकरी को पकड़कर एक लड़का अतुल के पीछे बाइक पर बैठा । वह नहीं जाता तो इस एडवेंचर के लिए मैं तैयार थी। साँपजी ने भी बाइक की सवारी का अनुभव पहली बार लिया होगा। कुछ ही देर में दोनों बच्चे साँप को नदी किनारे विदा कर आए जो यहाँ से 10 मिनट की ड्राइविंग पर ही है।
घर लौटने पर मैंने अतुल से पूछा क्या उसे डर नहीं लगा ? तब उसका जवाब था कि बचपन में डिस्कवरी चैनल ज्यादा देखा था ना, इसलिए डर नहीं लगता।
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मोगेम्बो (अतुल) खुश है साँप को पिंजरे में बंद करके ! |
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गहरी नींद में |
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बाइक की सवारी करते साँप महाशय |
शुक्रवार, 30 जून 2023
अखेरचे येतील माझ्या : हिंदी अनुवाद
यहाँ हर कहानी शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाती है। केवल नयनों का पानी ही उस कहानी का गवाह बनकर रह जाता है। ये प्रेमगीत वही गा सकते हैं जिनके हृदय में जख्म हुए हैं !
हर बंधन को तोड़ती हुई, जब बेसब्र नदी सागर से मिलने दौड़ती है, वह नहीं जानती कि ये मिलन पथ है या मृत्यु पथ है । अपने प्रिय को प्राप्त करने का यह प्रयत्न बिल्कुल वैसा ही है जैसा माटी द्वारा आकाश को छूने का प्रयत्न !!!
हाय ! कभी कभी मुझे ऐसा लगता है कि प्रेम ऐसा फूल है जिसकी सुगंध मुझसे बहुत बहुत दूर, मेरी पहुँच के बाहर है। केवल काँटे मात्र ही मेरी पहुँच में हैं, मेरे पास हैं। फिर भी मेरे ये प्राण तुम्हारे लिए, उस अप्राप्य सुगंध की खोज में भटकते हैं।
अगर कभी तुम्हारे कानों में ये मेरे आर्त गीत पड़ जाएँ और मेरे अंतर्मन में छुपे भाव इन स्वरों के द्वारा तुम तक पहुँच जाएँ तब तुम अपने नयनों के दो दीप मेरे लिए जला देना। (नयनों से दो अश्रूबिंदु मेरे लिए बहा देना) अंतिम क्षणों में मेरे होठों पर यही शब्द होंगे - "लाख हुईं भूलें मुझसे, पर तुमसे प्रेम किया है मैंने !"
सोमवार, 19 जून 2023
घर ( भाग १ )
6 वर्ष पहले गीता की आर्थिक स्थिति इतनी खराब नहीं थी जितनी आज हो गई है। हालांकि घर के दो टुकड़े हो चुके थे। आगे वाला हिस्सा देवर को मिला था और पीछे का हिस्सा उन्हें, जो एक सँकरी गली में खुलता था। इस गली में बहुत पिछड़े वर्ग के, असभ्य तरीके के लोग रहते थे। हालांकि उन लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से गीता को कभी परेशान नहीं किया था पर उनमें आपस में छोटी छोटी बातों पर काफी झगड़े होते और वे भद्दी भाषा और गालियों का प्रयोग करते थे। गीता एक साधारण सी कंपनी में क्लर्क थी, उसका वेतन अधिक नहीं था। पति भी प्राइवेट फर्म में काम करते थे। दोनों कमाते थे और दोनों की तनख्वाह मिलाकर कुल इतनी तो थी ही कि अच्छा खा पहनकर जिंदगी आराम से कट रही थी। हाँ, बचत के नाम पर कुल हजार दो हजार प्रति महीना ही था। इकलौती बेटी कान्वेंट में पढ़ रही थी, उसकी पढ़ाई पर भी अच्छा खासा खर्च होता था।
गीता ने ही सब कुछ किया। लोन पास कराने से लेकर निर्माणाधीन कांप्लेक्स का काम देख देखकर आती, अपनी जरूरतों के मुताबिक फ्लैट में कुछ बदलाव कराती। बिल्डर ने दो वर्ष में प्लैट का ताबा देने का वादा किया था।
शुक्रवार, 11 मार्च 2022
दया का अधिकार (एक संस्मरण)
उस समय मैं पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी। सरकारी स्कूल था, हिंदी माध्यम का। स्कूल में एक बड़ा-सा थालनुमा घंटा था, जिसे बड़े-से हथौड़ेनुमा डंडे से बजा कर स्कूल की चपरासी दया बच्चों को स्कूल की समय-सारिणी का ज्ञान कराती थी।
अधिकतर बच्चों के कान शिक्षिका के पढ़ाने पर कम और घंटे की ध्वनि की ओर अधिक लगे रहते थे, विशेषकर आधी छुट्टी के पहले और छुट्टी के पहले वाले पीरियड में।
स्कूल की चपरासी दया इस कार्य को पूरी कर्तव्यनिष्ठा और तत्परता से अंजाम देती थी। क्या मजाल कि पाँच मिनट पहले छुट्टी का घंटा बजा दे।
उस समय शिक्षक और माता-पिता बच्चों की सार्वजनिक बेइज्जती और पिटाई को अपना अधिकार समझते थे और बच्चों में सुधार के लिए जरूरी भी।
जैसे - अगर किसी बच्चे के कम अंक आए या उसने कोई बदमाशी की, तो माँ जब तक पड़ोस की चाची/ बुआ/ मौसी को बुलाकर उनके सामने सारा कच्चा चिट्ठा ना बखान कर दें और वे चाची/ बुआ/ मौसी पूरे अधिकार सहित बच्चे के कान ना उमेठ दें या एक लंबा चौड़ा भाषण सुना ना दें तब तक माँ के कलेजे में ठंडक ना पड़ती।
इसी तरह टीचर भी जब तक बच्चों के गलत उत्तरों को पूरी कक्षा के सामने पढ़कर ना सुना दें, तब तक उत्तर पुस्तिकाओं का बंडल कक्षा से रवाना नहीं किया जाता था।
एक बार नागरिक शास्त्र में प्रश्न आया - 'दया का अधिकार क्या है और यह अधिकार किसे होता है ?'
जवाब में एक बच्चे ने लिखा -
'दया का अधिकार है, स्कूल का घंटा बजाकर बच्चों को छुट्टी देना । यह अधिकार हमारे स्कूल की चपरासी दया को होता है।'
जाहिर सी बात है कि गुरुदेव ने इस अधिकार को सार्वजनिक रूप से कक्षा में ही घोषित नहीं किया बल्कि मॉनिटर को भेजकर दया को कक्षा में बुलवाया और उसे भी उसके अधिकार से परिचित करा दिया।
इस नई सूचना से दया बड़ी प्रसन्न हुई और खी - खी कर हँस पड़ी। बेचारा बच्चा बिना छड़ी की इस मार से शर्म से पानी-पानी हो रहा था।
गोस्वामी तुलसीदासजी सुंदरकांड में कह गए हैं -
"भय बिनु होंहिं ना प्रीति"
हमारे शालेय जीवन में हमारे शिक्षक शायद इसी कथन/उक्ति को सार्थक करते हुए, विद्यार्थियों के मन में भय का ऐसा बीज बोते थे कि उस बीज से विद्यार्थियों के जीवन में अनुशासन की, सदाचार की और गुरुजनों के प्रति सम्मानमिश्रित प्रेम की फसल लहलहाती थी ।
आज वह जमाना नहीं रहा जब शिक्षकों के सामने बच्चों की आँखें नहीं उठती थी। आज तो मेरी समझ में दया का अधिकार विद्यार्थियों को है। वे चाहें तो अपने शिक्षक और माता-पिता पर दया करके पढ़ाई पर और अनुशासन पर ध्यान दें और ना चाहें तो ना दें।
मंगलवार, 8 मार्च 2022
महिला दिवस
सच कहूँ,
महिला दिवस अब बेमानी लगता है।
तीन दिन पहले ही, महिला दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित था महिला कवि सम्मेलन।
सारी विदुषी कवयित्रियों का मधुर मिलन ।
एक कवयित्री कविता पढ़ रही थी, पीछे कुछ विदुषियाँ फुसफुसाकर उस पर फब्तियाँ कस रही थीं
"क्या कविता है,बकवास है एकदम। तुझे कुछ समझ में आई ?"
जवाब में दबी दबी सी हँसी के फव्वारे छूटे।
पर मंच से नीचे आते ही "वाह ! वाह !", "जबर्दस्त !" के बताशे बिखरने लगे।
झूठी कहीं की !!!
मंच पर बोलेंगी - "मैं सावित्री, मैं द्रौपदी, मैं सीता,
मुझ पर क्या क्या नहीं बीता ?"
और पीठ पीछे अपनी ही सखियों का चीरहरण करने में कसर ना छोड़ेंगी।
आज दोपहर मेरी कामवाली बाई (maid) वनिता कुछ देर से आई।
वही maid, जिसके एक दिन ना आने से हम सारी self made वीरांगनाओं की टें बोल जाती है।
मैंने कहा, "वनिता, आज काम नहीं है, आज तुमको छुट्टी। "
वनिता का चेहरा पहले खिला, फिर मुरझाया।
"क्या हुआ, छुट्टी मिलने की खुशी नहीं हुई तुझे ?"
"आपने तो छुट्टी दिया दीदी पर नीचे वाली मैडम के घर डबल काम है आज, वो क्या बोलते उसको ? लेडीज लोग का कोई सण (त्योहार ) है ना दीदी ? तो पार्टी है उसके घर।"
त्योहार लेडीज लोग का है ना, तो कुछ लेडीज का दूसरी लेडीज से डबल काम कराना तो बनता है !!!
वाह रे महिला दिवस !!!
फिर हुई शाम। पतिदेव पधारे। सुबह सुबह ही HAPPY WOMEN'S DAY का संदेश भेजकर मुझे मेरी जाति का बोध करानेवालों में वे भी एक हैं।
काम के बोझ से उनका मूड कुछ ऑफ था। उसका थोड़ा प्रसाद तो मुझे मिलना ही था। मैं उनकी अर्धांगिनी जो ठहरी।
(अर्धांगिनी का पुल्लिंग शब्द कहीं प्रयोग होते हुए किसी ने सुना हो तो बताएँ। मैंने नहीं सुना आज तक।)
ऐसे मौकों पर रानी लक्ष्मीबाई, कल्पना चावला, इंदिरा गांधी, किरण बेदी, बछेंद्री पाल आदि की स्मृतियाँ भी मुझमें वीरांगना वाला भाव नहीं भर पाती हैं । तो हमेशा की तरह आज भी अपने स्वाभिमान के गांडीव को ताक पर रखकर मैंने महान धनुर्धर अर्जुन का स्मरण किया और सोचा, "छोड़ो, अपनों से क्या लड़ना।"
कृष्ण मेरे घर के मंदिर में बैठे मंद मंद मुस्कुरा रहे थे, उन्होंने मुझे गांडीव उठाने को कहने का रिस्क नहीं लिया।
HAPPY WOMEN'S DAY
और भी बहुत से किस्से हैं महिला दिवस के, पर अभी ज्यादा लिखने का मूड नहीं है।
रविवार, 6 फ़रवरी 2022
आता विसाव्याचे क्षण : नमन स्वर कोकिला🙏
आज हम सबकी प्रिय गायिका सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर परमतत्त्व में विलीन हो गईं। लताजी के गाए हुए मेरे प्रिय गीतों में से एक, मराठी गीत का अपनी क्षमतानुसार हिंदी अनुवाद करने का मैंने प्रयत्न किया है। गीत के बोल और भावों के साथ संपूर्ण न्याय करते हुए लता दीदी ने इसे जब गाया तो अफवाह फैल गई कि इस गीत में लता दीदी ने अपने जीवन की संध्याकाल का और गायन कार्य से निवृत्ति लेने का संकेत दिया है। बाद में लता जी ने इस बात का खंडन किया। परंतु जब-जब इस गीत को सुनती हूँ, आँखें नम अवश्य हो जाती हैं।
मराठी के सुप्रसिद्ध कवि बालकृष्ण भगवंत बोरकर की यह कविता लताजी का स्वर पाकर अजर अमर हो गई है।
आप इस गीत को यहाँ सुन सकते हैं :
https://youtu.be/H4-TtMhOJyg
शनिवार, 28 अगस्त 2021
नर हो, ना निराश करो मन को
कवि मैथिलीशरण गुप्त जी की सुप्रसिद्ध कविता है -
'नर हो ना निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
जग में रहकर कुछ नाम करो,
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो ?
जब हम ‘नर हो, न निराश करो मन को’ पंक्ति को सुनते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई हमें चुनौती देते हुए कह रहा हो कि मानव होकर तुम सांसारिक जीवन की छोटी कठिनाइयों से घबरा जाते हो क्योंकि तुमने अभी तक जीवन की बाधाओं का सामना करना नहीं सीखा है।
हम मनुष्य हैं और वीरता हमारे पास है। एक बार की असफलता से इस तरह से निराश नहीं होना चाहिए हमें परिस्थितियों का डटकर सामना करना चाहिए। एक छोटी सी चिड़िया भी कभी भी हार नहीं मानती है, वह अपने घोंसले को बनाने के लिए बहुत मेहनत करती है। दूसरी तरफ मनुष्य होता है जो छोटी-छोटी बात पर निराश होकर बैठ जाता है उसे कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने तक परिश्रम करते रहना चाहिए।
क्योंकि –
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती।
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।।
जब कोई इंसान अपने लाभ या उन्नति के लिए काम करता है तो उसकी ताकत होता है उसका मानसिक बल। किसी विद्वान् ने कहा है – मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। जब तक मनुष्य को अपने मानसिक बल पर विश्वास होता है उसे कोई नहीं हरा सकता है, लेकिन जब मन मर जाता है तो व्यक्ति भी हार जाता है।
मन मनुष्य की समस्त शक्तियों का केंद्र है. किसी भी मनुष्य के व्यक्तित्व का दर्पण उसका मन ही है. कहा भी गया है –
तोरा मन दर्पण कहलाए,
भले बुरे सारे कर्मों को,
देखे और दिखाए,
तोरा मन दर्पण कहलाए..
इसी मानसिक बल के आधार पर हनुमानजी ने विशाल सागर को पार कर लिया था। नेपोलियन और गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसी बल के आधार पर अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। हमारे वीर क्रांतिकारी यदि निराश होकर बैठ जाते तो क्या हम आजादी हासिल कर पाते ?
विश्व विजय प्राप्त करने वाले सिकंदर की सफलता का राज यही था कि उसने मन में विश्वविजय की ठान रखी थी. वहीं जब उसका मन शिथिल हुआ, मन की हार ही उसके पराजय का कारण बनी. पराक्रमी महान सम्राट अशोक ने कलिंग जैसे वैभवशाली साम्राज्य को जीत लेने के बाद भी स्वयं को पराजित महसूस किया क्योंकि निरपराध लोगों के प्राण लेने के लिए उसके मन ने उसे उत्तरदायी ठहराया।
जैसी हमारे मन की हालत होती है हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी वैसा ही हो जाता है। जब हमारा मन प्रसन्न रहता है तो हमें प्रकृति का हर रूप सुंदर लगता है, मौसम सुहाना लगता है, सब कुछ शुभ और मंगलकारी लगता है किंतु अगर मन ही दुखी और निराश हो तो प्रकृति का हर रूप नीरस लगता है, सब चीजें विकृत रूप में नजर आने लगती हैं.
कहने का तात्पर्य यह है कि मन की सबलता ही व्यक्ति की सबलता है. शारीरिक रूप से हट्टा कट्टा व्यक्ति भी निर्बल ही कहलाएगा यदि उसका मन निर्बल हो।
अतः हमें स्वयं को बार बार याद दिलाते रहना चाहिए कि -
नर हो, ना निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने मनुष्य को कर्ममार्ग पर चलने के लिए कहा है। हमें अपने मन की शक्तियों को पहचानकर, उन्हें अपने लक्ष्य पर केंद्रित करके कर्म में जुट जाना चाहिए। ईश्वर ने हमें यह सारा संसार दिया है, सारे संसाधन हमारे पास हैं। इस दुनिया में दशरथ मांझी जैसे लोग भी हुए हैं जिन्होंने अपने परिश्रम से पर्वत को काटकर समतल कर दिया।
विपरीत परिस्थितियों से लड़कर सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँचने वाले नरवीरों के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं और वर्तमान में भी ऐसे दृढनिश्चयी लोगों की संसार में कमी नहीं है।
हमें कोई मार्ग दिखाएगा तब हम उस पर चलेंगे, ऐसा सोचकर निठल्ले बैठे रहनेवालों का जन्म व्यर्थ ही चला जाता है। अतः उठो, और अपने लिए मार्ग का निर्माण स्वयं ही करो।
कवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी कहा है :
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।।
गुन बड़े एक से एक प्रखर।
हैं छिपे मानवों के भीतर।।
अगर मानव परिश्रम और साहस करना ही छोड़ देगा तो उसका समाज में विकास कैसे होगा? उसके लिए हर तरह की उन्नति के रास्ते बंद हो जायेंगे। इसीलिए मनुष्य को अपने मनुष्यत्व को सिद्ध करना ही होगा। कहते हैं ना कि भगवान भी उनकी ही मदद करता है जो अपनी मदद खुद करते हैं।
अगर कर्मठ लोग निराशा को हावी होने देते तो हमारे देश में और संसार में वो सब विकास आज तक हुए ही न होते जो अब तक हुए हैं।
इसी वजह से कहा गया है कि नर होकर मन को निराश मत करो। निराशा की वजह से जीवन अंधकार से भर जाता है।
अंत में इन पंक्तियों के साथ मैं उत्साह और आशावाद का आह्वान करती हूँ –
राह में मुश्किल होगी हजार,
तुम दो कदम बढाओ तो सही।
हो जाएगा हर सपना साकार,
तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।।
मुश्किल है पर इतना भी नहीं,
कि तू कर ना सके।
दूर है मंजिल लेकिन इतनी भी नहीं,
कि तू पा ना सके।
तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।।
विशिष्ट पोस्ट
वटवृक्ष ओर जूहीलता
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