शनिवार, 25 जनवरी 2025

वटवृक्ष ओर जूहीलता

 

गाँव की कच्ची पगडंडी के किनारे बहुत से वृक्ष थे. नीम, पीपल, कनेर, बहुत सारे. पर उनमें खास था एक बरगद का पेड़ - बहुत बड़ा, विशाल और बहुत ही पुराना. इस बरगद की छाँव बहुत शीतल होती थी. इतनी शीतल कि गर्मी में लू की यहाँ फटकने की हिम्मत भी नहीं होती थी. जानें कितने प्राणी, कितने जीव उस वटवृक्ष की छाया में विश्राम पाते, आश्रय लेते और कई तो थकान मिटाकर, अपनी आगे की राह चल देते.

 कुछ का तो स्थायी निवास भी था उस पर. कीड़े - मकोड़े, पंछी, गिलहरियाँ, बंदर सभी अपनी - अपनी गतिविधियों से वटवृक्ष की गंभीरता भंग करते थे. पर फिर भी वह वटवृक्ष निर्विकार, निश्चल खड़ा सबको अपना अपना हक लेने देता

.....बिना माँगे भी ...

एक खुशनुमा सुबह वटवृक्ष की निगाह अपनी जड़ों पर गई. अक्सर वहां सूखे पत्तों का ढेर लगा रहता था, वहां कुछ कीड़े - मकोड़े, चींटे रेंगते रहते . कुछ गिलहरियाँ चहल कदमी करती रहती थी. लेकिन आज वहाँ कुछ नया था ! चार नन्हीं - नन्हीं नई हरी चमकती पत्तियाँ और जड़ों के सहारे ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करती कच्ची कोंपलें !

वटवृक्ष ने सोचा, ओह! ये तो कोई बेल है, यह यहाँ कैसेऔर कब उग आई ? चलो अब जो भी हो, जैसे भी हो अब आ गई है तो अब इसे सँभालना मेरा कर्तव्य है. यही सोच कर वटवृक्ष ने अपनी एक शाखा से उस बेल के निकट कुछ पत्ते टपकाए जिससे कि वह उन शैतान प्राणियों की नजर से छुपी रहे. उसे डर था कि ये शैतान प्राणी कहीं बेल को तोड़ ना दें.

बेल की सुरक्षा अब वटवृक्ष का रोजाना का काम हो गया था. धीरे - धीरे उस वटवृक्ष के पत्तों की आड़ में संरक्षित वह बेल लटकती जटाओं - जड़ों के सहारे बढ़ने लगी. कुछ ही दिनों में वह वटवृक्ष की लाड़ली बन गई. गंभीर रहने वाले उस वटवृक्ष के चेहरे पर भी खुशी झलकने लगी. सभी प्राणी भी इस परिवर्तन से हतप्रभ थे और सोचते कि इसका राज क्या है?

जब बेल वटवृक्ष पर  थोड़ा ऊपर पहुँची तो वटवृक्ष को पता चल गया कि यह तो जूहीलता है और समय आने पर यह सुंदर, सुवासित फूलों से इस परिसर को महकाएगी. पर वटवृक्ष  को इस बात की चिंता थी कि वह यहाँ बचकर कैसे रह पाएगी. क्या यह शैतान प्राणी इसे जीने देंगे ?

वानरसेना की उछलकूद और गिलहरियों की भागदौड़ से अब वटवृक्ष की साँस अटक सी जाती. ना जाने कब टूट जाए वह छोटी सी बेल इन शैतानों की धमाचौकड़ी में !

उधर जूही के नन्हें ओठों से शब्द फूटने लगे. वह रात - रात भर वटवृक्ष से बातें करती. कभी मूक मौन संवाद चलता, कभी खामोशी बोलती और कभी नाजुक पत्तों की ह्ल्की सरसराहट वटवृक्ष के कानों में कुछ कह जाती.

जूही अपनी धुन में वटवृक्ष के साथ जुड़ती, उसकी शाखाओं से लिपटती बढ़ती जा रही थी. बिछड़ना क्या होता है इससे बिल्कुल बेखबर ! किंतु वटवृक्ष ने दुनिया देखी थी, बिछोह की कल्पना थी उसे !

इसीलिए वह नित्य प्रभु से प्रार्थना करता कि जूहीलता को कोई योग्य संरक्षक मिल जाए. कुछ समय पहले ही उसने खुद सुना था कि यहाँ एक पक्की सड़क बनने वाली है और उसके लिए कुछ पेड़ काटे जा सकते हैं . हो सकता है उसे भी अपनी कुर्बानी देनी पड़े !

वह चिंतित था क्योंकि वानर, गिलहरी व अन्य कीड़े मकोड़े तो अपना निवास बदल लेंगे, पर इस जूही के लिए ऐसा संभव न था . आखिर उसकी प्रार्थना भगवान ने सुन ली .एक दिन उस राह एक राहगीर गुजरा. थकाहारा वह भी सबकी तरह वटवृक्ष की छाँव तले आराम करने लगा. वटवृक्ष की शीतल छाँव में कुछ ही देर में उसे नींद आ गई. जब आँख खुली तो उसकी नजर अचानक जूहीलता पर पड़ी.

अरे ! यह इतनी सुंदर बेल यहाँ ? यहाँ तो यह ऐसे ही नष्ट हो जाएगी, इसे तो मेरे उद्यान में होना चाहिए ....

बस! फिर क्या था? उस राहगीर ने जूहीलता को जड़ों से उखाड़ लिया कि वह उसे ले जाकर अपने उद्यान में रोप सके. जूहीलता को वटवृक्ष से बिछड़ना मंजूर न था. पर कौन सुनता उसका क्रंदन ? वटवृक्ष से गुहार लगाई किंतु वह तो शाँत खड़ा रहा... निश्चल.... निर्विकार ...!

जूहीलता के कुछ हिस्से वटवृक्ष में ऐसे उलझे लिपटे थे कि उन्हें तोड़ देना पड़ा. जूही का क्रंदन बढ़ता गया. एक छूटने का दर्द और दूसरा टूटने का ! वटवृक्ष तो खामोश खड़ा था. उसने राहगीर को रोकने की कोशिश तक नहीं की.

 उस अजनबी ने जूही को अपने साथ ले जाकर अपने खूबसूरत उद्यान के सबसे सुंदर स्थान पर लगा दिया. रोज पानी देता और जूहीलता का खास ख्याल करता लेकिन....
क्या जी पाएगी जूहीलता उस नए सुरक्षित स्थान पर?

       .....साँसें तो वहीं रह गईं थीं !!!

( चित्र गूगल से साभार )

काश !

 

काश....

"माँ, नदी देखने चलोगी ?"

मेरे बीस वर्ष के बेटे ने ये सवाल किया तो लगा सचमुच वह बड़ा हो गया है । वह अच्छी तरह जानता है मुझे नदी देखना कितना अच्छा लगता है।

बारिश के मौसम में उफनती नदी को देखना ऐसा लगता है मानो किसी ईश्वरीय शक्ति का साक्षात्कार हो रहा हो । रेनकोट पहनकर मैं तुरंत तैयार हो गई । तेज बारिश हो रही थी। दस मिनट में हम पुल पर थे जिसके नीचे से उल्हास नदी अपने पूरे सौंदर्य और ऊर्जा के साथ प्रवाहमान हो रही थी ।

"बाबू , चल ना दो मिनट किनारे तक चलें, कोई रास्ता है क्या
नीचे उतरने का ?" मैंने पूछा।

"हाँ , है तो । लेकिन सिर्फ दो मिनट क्योंकि इस समय काफी सुनसान रहता है वहाँ नीचे। पुल के ऊपर से आप चाहे जितनी देर देख लो ।"

पुल से नीचे उतरने वाली ढलान पर गाड़ी रोक कर लॉक की और हम नीचे उतर कर नदी के किनारे खड़े हो गए ।

उस वक्त नदी में कल-कल का संगीत नहीं था, घहराती हुई गर्जना थी .. तभी कुछ दूरी पर किनारे बैठे युवक की ओर ध्यान खिंच गया । वह घुटनों में सिर छुपाए बैठा था । दीन - दुनिया से बेखबर !

मैंने बेटे की ओर देखा लेकिन मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरा समझदार सुपुत्र बोल उठा, "बस, अब आप कुछ कहना मत । वह लड़का वहाँ क्यों बैठा है, कौन है , ये सब मत पूछना प्लीज.. अब जल्दी चलें यहाँ से।"

"लेकिन वह अकेला क्यों बैठा है ? डिप्रेशन का शिकार लग रहा है बेचारा।"
     
"कुछ नहीं डिप्रेशन - विप्रेशन । ये अंग्रेज चले गए डिप्रेशन छोड़ गए । जिम्मेदारियों से भागने का सस्ता और सरल उपाय! बस डिप्रेशन में चले जाओ । आप नहीं जानतीं। ये चरसी या नशेड़ी होगा कोई । आप चलो अब ।"

"अरे , मैं नहीं बात करूँगी, तू तो एक बार पूछ कर देख। शायद उसे किसी मदद की जरूरत हो ।"

"नहीं ममा, आप चलो अब । बारिश बढ़ गई है और यह जगह
कितनी सुनसान है ।" अब बेटे के स्वर में चिढ़ और नाराजगी साफ जाहिर हो रही थी ।

मजबूर होकर मैं घर चली आई । घुटनों में सिर छुपाए बैठा वह लड़का दिमाग से निकल ही नहीं रहा था ।

अगले दिन.....सुबह सैर के लिए निकली । पड़ोस के जोगलेकर जी हर सुबह नदी किनारे तक सैर करके आते हैं । मैं नीचे सड़क पर आई तो वे मिल गए । हर रोज की तरह प्रफुल्लित नहीं लग रहे थे ।  मैंने पूछा -- "क्या बात है भाई साहब, तबीयत ठीक नहीं है क्या ?"

थके से स्वर में बोले, "क्या बताऊँ, सुबह-सुबह इतना दुःखद दृश्य देखा । नदी से दो लाशें निकाली हैं पुलिस ने । एक लड़के और लड़की की । आत्महत्या का मामला लग रहा है ।"

मेरा सिर चकरा गया । घुटनों में सिर छुपाए वह लड़का आँखों के सामने घूम गया । कहीं वही तो नहीं.....

जिंदगी में अनेक बार ऐसे प्रसंग आए हैं जब घटना घटित हो जाने के बाद सोचती रह गई हूँ --

काश.......
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एक रोमांचक अनुभव

 


श्रावण महीने का दूसरा रविवार...मेरी बहनों ने भीमाशंकर जाने का प्रोग्राम बनाया। मेरी भी कई बरसों की इच्छा पूरी हुई। हमारा आठ लोगों का ग्रुप बन गया था। मेरे और मेरी छोटी बहन के पति, एक सहेली, बहन और सहेली की सास को मिलाकर ।

  सुबह के ताजगीभरे समय में यात्रा करने का अलग ही मजा होता है।उसपर बारिश लगातार हो रही थी।रास्ते की हरियाली, मालशेज घाट के झरने और जंगल का सौंदर्य निहारते हम भीमाशंकर पहुँच गए जो बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।

   बारिश से बचने के लिए वहाँ छाता कोई काम नहीं आता, तेज हवा से उलट जाता है। खैर भीगते-भीगते हम मंदिर पहुँचे।मंदिर पहाड़ों से घिरा हुआ है। बादल जैसे धरती पर उतर आए थे। आप से पाँच-छः फुट दूर खड़ा इंसान आपको न दिख सके, इतनी धुंध !

    बड़ी देर तक कतार में लगकर हम मंदिर के अंदर पहुँचने ही वाले थे कि कुछ लोग चिल्लाए, "साँप, साँप...!" लोग घबराहट में लोहे की रेलिंग पर चढ़ने लगे, जो अक्सर मंदिरों में कतार में खड़े रहने के लिए बनाई जाती है। घबरा तो मैं भी गई मगर अचानक किसी दैवी प्रेरणा से मैंने लोगों को भगदड़ मचाने से रोकना शुरु किया ।

   लोग जहाँ से जगह मिले, भागने की कोशिश में थे।बूढ़े और बुजुर्ग लोग भी थे वहाँ। मैं और मेरी सहेली लोगों को चिल्ला-चिल्लाकर नीचे उतरने और भगदड़ न मचाने के लिए प्रार्थना करते रहे । लोगों पर हमारी बात का असर हो रहा था क्योंकि मैंने उनसे कहा कि साँप काटने से कोई मरे ना मरे, भगदड़ मच गई तो कितनों की जान जाएगी ?

     ओम नमः शिवाय का जोर-जोर से जाप करते लोगों ने देखा कि साँप ने हजारों की भीड़ में से अपना रास्ता बना लिया और मंदिर की दीवार के नीचे एक छेद में गुम हो गया ।

   लोगों की समझदारी से कहें या ईश्वर की महिमा से, पर कोई अप्रिय घटना नहीं हुई । मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया।
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जब हम बने सर्पमित्र

 

जब हम बने सर्पमित्र !
(डायरी 2 sep 2017)
 दोपहर 1.30 बजे स्कूल से लौटी। बिल्डिंग के नीचे पार्किंग एरिया दोपहर के वक्त खाली होता है, वहीं से गुजरकर लिफ्ट की ओर बढ़ते समय पाया कि 12 से 15 वर्ष के चार लड़के एक कोने को घेरकर बड़े ध्यान से कुछ देख रहे हैं।

उत्सुकतावश वहाँ जाकर देखा तो पाया कि बच्चों ने कोने में दीवार का आधार लेकर दो साइकिल लगा रखी थीं और उनके पीछे ठीक कोने में साँप !
साँप गोलमटोल गठरी सा होकर कोने में पड़े पत्थर के पास गहरी नींद का आनंद ले रहा था और बच्चे 'मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाय, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाय' वाली मुद्रा में चर्चा कर रहे थे।

मैंने बच्चों को दूर किया और वाचमैन को बुलाया। वाचमैन काका सीधे एक बड़ा सा पत्थर पटककर साँप का क्रियाकर्म कर देने के पक्ष में थे, मैं उसे पकड़कर कहीं दूर छोड़ देने के पक्ष में थी, लड़के मेरे पक्ष में हो गए थे। साँप जी हमारे इरादों से बेखबर स्वप्नलोक में खोए रहने के पक्ष में थे।

इस कॉलोनी को बने हुए अभी तीन वर्ष ही हुए हैं और मुझे यहाँ आए दो वर्ष। पाँच सात साल पहले तक इस जमीन पर घने पेड़ पौधे थे जिन्हें हटाकर यह बस्ती बसाई गई। साँप हर बारिश में निकलते रहते हैं यहाँ, पीछे का परिसर अब भी जंगल सा ही है।

वाचमैन ने कहा,"मैडम, अब तक पाँच मार चुके हैं हम! आपको क्या पता, आप तो सुबह जाते हो रात को लौटते हो।" मैं - "हाँ काका, मारे होंगे आपने पाँच पर ये तो मेरे सामने आ गया। मैं कोशिश करती हूँ कि कोई इसे पकड़कर दूर छोड़ दे।"

मैंने शैलेश सर को फोन किया जो क्लासेस में विज्ञान पढ़ाते हैं। शायद उनके पास किसी सर्पमित्र (snake rescuer) का नंबर हो। सर ने पाँच मिनट में ही एक सर्पमित्र का नंबर मैसेज किया। उसे फोन करने पर पता चला कि वह बाहर है और कल लौटेगा।

अब मैं क्या करूँ? साढ़े तीन बजे मुझे क्लासेस जाना था। उसके पहले खाना बनाना और खाना भी था। तभी मेरा बेटा अतुल कालेज से लौट आया। अब मेरे पक्ष में पाँच लोग हो गए।

इस बीच वहाँ से दो तीन महिलाएँ गुजरीं और वाचमैन को साँप मारने का निर्देश देकर चली गईं। साँप की प्रजाति पर भी अटकलें लगाईं गईं।
अब हमने स्वयं ही सर्पमित्र बनने का निश्चय कर लिया।

मैं साँप को अतुल के भरोसे छोड़कर घर गई और एक ढक्कन वाली बास्केट, एक कॉटन की चादर और एक झाड़ू लाई। उस वक्त यही समझ में आया।       
आसपास इतनी हलचल होने पर भी साँप का यूँ सोते रहना असामान्य बात थी। कहीं मरा हुआ तो नहीं? एक रिस्क ली। झाड़ू के पिछले डंडे से साँप को स्पर्श किया तो वह थोड़ा सा हिलकर फिर शांत हो गया, जैसे छोटे बच्चे माँ के जगाने पर 'उँहूँ ! अभी नहीं !' कहकर करवट बदलकर फिर सो जाते हैं।

तब तक अतुल ने वाचमैन का डंडा लिया।आसपास निरीक्षण करने पर एक धातु का तार पड़ा मिल गया। तार को मोड़कर हुक की तरह बनाकर डोरी से डंडे के सिरे पर बाँधा गया। तब तक लड़कों ने साँप के फोटो, वीडियो खींच लिए। वाचमैन 'ध्यान से, सावधानी से' कहता जा रहा था।

अतुल ने टोकरी को साँप के पास आड़ी पकड़कर हुक से साँप को झट से उठाकर टोकरी में डाल दिया और मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला - "अरे वाह !" टोकरी का ढक्कन तुरंत बंद कर दिया गया। टोकरी के हिलते ही साँप महाशय अपनी गहन निद्रा से जाग गए और पूरा शरीर खोलकर दिखाया - देखो, इतना भी छोटा नहीं मैं !

बंद टोकरी को पकड़कर एक लड़का अतुल के पीछे बाइक पर बैठा । वह नहीं जाता तो इस एडवेंचर के लिए मैं तैयार थी। साँपजी ने भी बाइक की सवारी का अनुभव पहली बार लिया होगा। कुछ ही देर में दोनों बच्चे साँप को नदी किनारे विदा कर आए जो यहाँ से 10 मिनट की ड्राइविंग पर ही है।

   घर लौटने पर मैंने अतुल से पूछा क्या उसे डर नहीं लगा ? तब उसका जवाब था कि बचपन में डिस्कवरी चैनल ज्यादा देखा था ना, इसलिए डर नहीं लगता।
मोगेम्बो (अतुल) खुश है साँप को 
पिंजरे में बंद करके !
गहरी नींद में 
बाइक की सवारी करते साँप महाशय

शुक्रवार, 30 जून 2023

अखेरचे येतील माझ्या : हिंदी अनुवाद

मेरे प्रिय कवि मंगेश पाडगावकर जी की एक सुंदर मराठी कविता का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है। आप इस सुमधुर भावगीत को यहाँ सुन सकते हैं।
https://youtu.be/eX3REkPo15g

अखेरचे येतील माझ्या हेच शब्द ओठी !
लाख चुका असतील केल्या, केली पण प्रीती !

जीवन के अंतिम क्षणों में मेरे होठों पर यही शब्द होंगे - "लाख हुईं भूलें मुझसे, पर तुमसे प्रेम किया है मैंने !"

इथे सुरु होण्याआधी, संपते कहाणी,
साक्षीला केवळ उरते, डोळ्यांतील पाणी !
जखम उरी होते ज्यांच्या, तेच गीत गाती...

यहाँ हर कहानी शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाती है। केवल नयनों का पानी ही उस कहानी का गवाह बनकर रह जाता है। ये प्रेमगीत वही गा सकते हैं जिनके हृदय में जख्म हुए हैं !

सर्व बंध तोडूनी जेव्हा नदी धुंद धावे,
मीलन वा मरण पुढे, हे तिला नसे ठावे !
एकदाच आभाळाला अशी भिडे माती...

हर बंधन को तोड़ती हुई, जब बेसब्र नदी सागर से मिलने दौड़ती है, वह नहीं जानती कि ये मिलन पथ है या मृत्यु पथ है । अपने प्रिय को प्राप्त करने का यह प्रयत्न बिल्कुल वैसा ही है जैसा माटी द्वारा आकाश को छूने का प्रयत्न !!!

गंध दूर ज्याचा, आणिक जवळ मात्र काटे
असे फुल प्रीती म्हणजे कधी हाय वाटे !
तरी गंध धुंडीत धावे जीव तुझ्यासाठी....

हाय ! कभी कभी मुझे ऐसा लगता है कि प्रेम ऐसा फूल है जिसकी सुगंध मुझसे बहुत बहुत दूर, मेरी पहुँच के बाहर है। केवल काँटे मात्र ही मेरी पहुँच में हैं, मेरे पास हैं। फिर भी मेरे ये प्राण तुम्हारे लिए, उस अप्राप्य सुगंध की खोज में भटकते हैं। 

आर्त गीत आले जर हे कधी तुझ्या कानी,
गूज अंतरीचे कथिले तुला ह्या स्वरांनी,
डोळ्यांतून माझ्यासाठी लाव दोन ज्योती !

अखेरचे येतील माझ्या हेच शब्द ओठी,
लाख चुका असतील केल्या, केली पण प्रीती !

अगर कभी तुम्हारे कानों में ये मेरे आर्त गीत पड़ जाएँ और मेरे अंतर्मन में छुपे भाव इन स्वरों के द्वारा तुम तक पहुँच जाएँ तब तुम अपने नयनों के दो दीप मेरे लिए जला देना। (नयनों से दो अश्रूबिंदु मेरे लिए बहा देना) अंतिम क्षणों में मेरे होठों पर यही शब्द होंगे - "लाख हुईं भूलें मुझसे, पर तुमसे प्रेम किया है मैंने !"

सोमवार, 19 जून 2023

घर ( भाग १ )

 6 वर्ष पहले गीता की आर्थिक स्थिति इतनी खराब नहीं थी जितनी आज हो गई है। हालांकि घर के दो टुकड़े हो चुके थे। आगे वाला हिस्सा देवर को मिला था और पीछे का हिस्सा उन्हें, जो एक सँकरी गली में खुलता था। इस गली में बहुत पिछड़े वर्ग के, असभ्य तरीके के लोग रहते थे। हालांकि उन लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से गीता को कभी परेशान नहीं किया था पर उनमें आपस में छोटी छोटी बातों पर काफी झगड़े होते और वे भद्दी भाषा और गालियों का प्रयोग करते थे। गीता एक साधारण सी कंपनी में क्लर्क थी, उसका वेतन अधिक नहीं था। पति भी प्राइवेट फर्म में काम करते थे। दोनों कमाते थे और दोनों की तनख्वाह मिलाकर कुल इतनी तो थी ही कि अच्छा खा पहनकर जिंदगी आराम से कट रही थी। हाँ, बचत के नाम पर कुल हजार दो हजार प्रति महीना ही था। इकलौती बेटी कान्वेंट में पढ़ रही थी, उसकी पढ़ाई पर भी अच्छा खासा खर्च होता था।

 गीता के पति रमेश अपने जीवन से पूर्ण संतुष्ट थे परंतु गीता इस गलीवाले घर में रहने को लेकर खुश नहीं थी। वह अक्सर रमेश से कहती -
"इस मोहल्ले को सारे अच्छे अच्छे लोग छोड़ते चले जा रहे हैं। इस गली के लोगों की असभ्य भाषा सुनकर तो कानों के कीड़े झड़ जाएँ। बेटी भी बड़ी हो रही है। हम कहीं और क्यों नहीं चले जाते रहने ? आप तो हाथ पर हाथ धरे बैठे हो। इस घर में अपनी सहेलियों को बुलाने में भी डर लगता है। ना जाने कब पड़ोसी शराब पीकर आ जाए और पत्नी को मारना पीटना और गंदी गालियाँ बकना शुरू कर दे। ऐसे में शर्मिंदा तो मुझे ही होना पड़ता है।"
रमेश निर्विकार भाव से उत्तर देते -
"फ्लैट खरीदना मेरे बस का नहीं है और अपने घर को छोड़कर किराए पर जाने में मुझे कोई तुक नजर नहीं आती।"
आए दिन इस विषय को लेकर दोनों में वाद विवाद होता और अब तो किशोर वय में पदार्पण करती मोना भी वहाँ रहने के खिलाफ थी।
तभी एक दिन गीता की चाची का फोन आया -
"सुन, हमारी बिल्डिंग के सामने ही नया कॉम्प्लेक्स बन रहा है। तू वहाँ फ्लैट का नंबर लगा दे। मौका मत छोड़। रमेश को मैं समझाऊँगी। हाइवे इस कांप्लेक्स के सामने से बनने वाली है। दस साल में दुगुने दाम हो जाएँगे इस जगह के।"
बात गीता के दिमाग में बैठ गई। उसने रो पीटकर रमेश को भी मना लिया। सारा हिसाब समझाते हुए कहा -
"देखिए, माना कि हमारे पास बचत कुछ भी नहीं है। पर 90 % तक लोन मिल जाएगा। फिर जैसे ही फ्लैट तैयार हो जाता है, हम वहाँ शिफ्ट हो जाएँगे और इस घर को बेच देंगे। इसके दाम ज्यादा नहीं मिलेंगे पर आधा कर्ज तो उतर ही जाएगा इसे बेचने से।"
आखिर रमेश ने बात मान ली।
गीता ने ही सब कुछ किया। लोन पास कराने से लेकर निर्माणाधीन कांप्लेक्स का काम देख देखकर आती, अपनी जरूरतों के मुताबिक फ्लैट में कुछ बदलाव कराती। बिल्डर ने दो वर्ष में प्लैट का ताबा देने का वादा किया था।
 ( शेष अगले भाग में )

शुक्रवार, 11 मार्च 2022

दया का अधिकार (एक संस्मरण)

उस समय मैं पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी। सरकारी स्कूल था, हिंदी माध्यम का। स्कूल में एक बड़ा-सा थालनुमा घंटा था, जिसे बड़े-से हथौड़ेनुमा डंडे से बजा कर स्कूल की चपरासी दया बच्चों को स्कूल की समय-सारिणी का ज्ञान कराती थी। 

अधिकतर बच्चों के कान शिक्षिका के पढ़ाने पर कम और घंटे की ध्वनि की ओर अधिक लगे रहते थे, विशेषकर आधी छुट्टी के पहले और छुट्टी के पहले वाले पीरियड में। 

स्कूल की चपरासी दया इस कार्य को पूरी कर्तव्यनिष्ठा और तत्परता से अंजाम देती थी। क्या मजाल कि पाँच मिनट पहले छुट्टी का घंटा बजा दे।

उस समय शिक्षक और माता-पिता बच्चों की सार्वजनिक बेइज्जती और पिटाई को अपना अधिकार समझते थे और बच्चों में सुधार के लिए जरूरी भी। 

जैसे - अगर किसी बच्चे के कम अंक आए या उसने कोई बदमाशी की, तो माँ जब तक पड़ोस की चाची/ बुआ/ मौसी को बुलाकर उनके सामने सारा कच्चा चिट्ठा ना बखान कर दें और वे चाची/ बुआ/ मौसी पूरे अधिकार सहित बच्चे के कान ना उमेठ दें या एक लंबा चौड़ा भाषण सुना ना दें तब तक माँ के कलेजे में ठंडक ना पड़ती।

 इसी तरह टीचर भी जब तक बच्चों के गलत उत्तरों को पूरी कक्षा के सामने पढ़कर ना सुना दें, तब तक उत्तर पुस्तिकाओं का बंडल कक्षा से रवाना नहीं किया जाता था।

एक बार नागरिक शास्त्र में प्रश्न आया - 'दया का अधिकार क्या है और यह अधिकार किसे होता है ?' 

जवाब में एक बच्चे ने लिखा -  

'दया का अधिकार है, स्कूल का घंटा बजाकर बच्चों को छुट्टी देना । यह अधिकार हमारे स्कूल की चपरासी दया को होता है।'

जाहिर सी बात है कि गुरुदेव ने इस अधिकार को सार्वजनिक रूप से कक्षा में ही घोषित नहीं किया बल्कि मॉनिटर को भेजकर दया को कक्षा में बुलवाया और उसे भी उसके अधिकार से परिचित करा दिया।

इस नई सूचना से दया बड़ी प्रसन्न हुई और खी - खी कर हँस पड़ी। बेचारा बच्चा बिना छड़ी की इस मार से शर्म से पानी-पानी हो रहा था।

गोस्वामी तुलसीदासजी सुंदरकांड में कह गए हैं - 

"भय बिनु होंहिं ना प्रीति" 

हमारे शालेय जीवन में हमारे शिक्षक शायद इसी कथन/उक्ति को सार्थक करते हुए, विद्यार्थियों के मन में भय का ऐसा बीज बोते थे कि उस बीज से विद्यार्थियों के जीवन में अनुशासन की, सदाचार की और गुरुजनों के प्रति सम्मानमिश्रित प्रेम की फसल लहलहाती थी ।

आज वह जमाना नहीं रहा जब शिक्षकों के सामने बच्चों की आँखें नहीं उठती थी। आज तो मेरी समझ में दया का अधिकार विद्यार्थियों को है। वे चाहें तो अपने शिक्षक और माता-पिता पर दया करके पढ़ाई पर और अनुशासन पर ध्यान दें और ना चाहें तो ना दें। 


      

मंगलवार, 8 मार्च 2022

महिला दिवस

  सच कहूँ,

महिला दिवस अब बेमानी लगता है।

तीन दिन पहले ही, महिला दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित था महिला कवि सम्मेलन।

सारी विदुषी कवयित्रियों का मधुर मिलन ।

एक कवयित्री कविता पढ़ रही थी, पीछे कुछ विदुषियाँ फुसफुसाकर उस पर फब्तियाँ कस रही थीं

"क्या कविता है,बकवास है एकदम। तुझे कुछ समझ में आई ?"

जवाब में दबी दबी सी हँसी के फव्वारे छूटे।

पर मंच से नीचे आते ही "वाह ! वाह !", "जबर्दस्त !" के बताशे बिखरने लगे।  

झूठी कहीं की !!! 

मंच पर बोलेंगी - "मैं सावित्री, मैं द्रौपदी, मैं सीता, 

                       मुझ पर क्या क्या नहीं बीता ?"

और पीठ पीछे अपनी ही सखियों का चीरहरण करने में कसर ना छोड़ेंगी।

आज दोपहर मेरी कामवाली बाई (maid) वनिता कुछ देर से आई।

वही maid, जिसके एक दिन ना आने से  हम सारी self made वीरांगनाओं की टें बोल जाती है। 

मैंने कहा, "वनिता, आज काम नहीं है, आज तुमको छुट्टी। "

वनिता का चेहरा पहले खिला, फिर मुरझाया। 

"क्या हुआ, छुट्टी मिलने की खुशी नहीं हुई तुझे ?"

"आपने तो छुट्टी दिया दीदी पर नीचे वाली मैडम के घर डबल काम है आज, वो क्या बोलते उसको ? लेडीज लोग का कोई सण (त्योहार ) है ना दीदी ? तो पार्टी है उसके घर।"

त्योहार लेडीज लोग का है ना, तो कुछ लेडीज का दूसरी लेडीज से डबल काम कराना तो बनता है !!!

वाह रे महिला दिवस !!!

फिर हुई शाम। पतिदेव पधारे। सुबह सुबह ही HAPPY WOMEN'S DAY का संदेश भेजकर मुझे मेरी जाति का बोध करानेवालों में वे भी एक हैं।

काम के बोझ से उनका मूड कुछ ऑफ था। उसका थोड़ा प्रसाद तो मुझे मिलना ही था। मैं उनकी अर्धांगिनी जो ठहरी। 

(अर्धांगिनी का पुल्लिंग शब्द कहीं प्रयोग होते हुए किसी ने सुना हो तो बताएँ। मैंने नहीं सुना आज तक।)

 ऐसे मौकों पर रानी लक्ष्मीबाई, कल्पना चावला, इंदिरा गांधी, किरण बेदी, बछेंद्री पाल आदि की स्मृतियाँ भी मुझमें वीरांगना वाला भाव नहीं भर पाती हैं । तो हमेशा की तरह आज भी अपने स्वाभिमान के गांडीव को ताक पर रखकर मैंने महान धनुर्धर अर्जुन का स्मरण किया और सोचा, "छोड़ो, अपनों से क्या लड़ना।"

कृष्ण मेरे घर के मंदिर में बैठे मंद मंद मुस्कुरा रहे थे, उन्होंने मुझे गांडीव उठाने को कहने का रिस्क नहीं लिया।

HAPPY WOMEN'S DAY

  और भी बहुत से किस्से हैं महिला दिवस के, पर अभी ज्यादा लिखने का मूड नहीं है। 

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

आता विसाव्याचे क्षण : नमन स्वर कोकिला🙏

 आज हम सबकी प्रिय गायिका सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर परमतत्त्व में विलीन हो गईं। लताजी के गाए हुए मेरे प्रिय गीतों में से एक, मराठी गीत का अपनी क्षमतानुसार हिंदी अनुवाद करने का मैंने प्रयत्न किया है। गीत के बोल और भावों के साथ संपूर्ण न्याय करते हुए लता दीदी ने इसे जब गाया तो अफवाह फैल गई कि इस गीत में लता दीदी ने अपने जीवन की संध्याकाल का और गायन कार्य से निवृत्ति लेने का संकेत दिया है। बाद में लता जी ने इस बात का खंडन किया। परंतु जब-जब इस गीत को सुनती हूँ, आँखें नम अवश्य हो जाती हैं। 

मराठी के सुप्रसिद्ध कवि बालकृष्ण भगवंत बोरकर की यह कविता लताजी का स्वर पाकर अजर अमर हो गई है। 

आप इस गीत को यहाँ सुन सकते हैं :

https://youtu.be/H4-TtMhOJyg


आता विसाव्याचे क्षण
माझे सोनियाचे मणी
सुखे ओविता ओविता
त्याची ओढतो स्मरणी

हर उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख से गुजरकर, जीवन को भरपूर जीने के बाद जीवन की संध्याकाल में पहुँचकर मन विश्राम की इच्छा करता है। जीवन की भाग दौड़ के बाद अब विश्राम के क्षणों को जीने का, उनका आनंद लेने का समय है।  सारी सुनहरी यादें, वे सारे सुनहरे क्षण सोने के मोती हो गए हैं। मधुर स्मृतियों के ये मोती मन की स्मरणी (सुमरनी) में पिरोकर उस सुमरनी को फेरने का यह भावविभोर करनेवाला समय है।

काय सांगावे नवल 
दूर रानीची पाखरे
ओल्या अंगणी नाचता 
होती माझीच नातरे

मैं विस्मय विमुग्ध हूँ। आनंद के क्षणों की झड़ी लग गई है। इस वर्षा से मेरे मन का आँगन गीला है। इस गीले नम आँगन में दूर किसी वन के पक्षियों का झुंड उतरा है। उन छोटे-छोटे पक्षियों का नृत्य मुझे अपने नन्हें नन्हें नाती-पोतों की याद दिलाता है। मानो दूर देश में रहनेवाले मेरे नाती-पोते मेरे आँगन में खेलने आ गए हैं।

कधी होती डोळे ओले 
मन माणसाची तळी 
माझे पैलातले हंस 
डोल घेती त्याच्या जळी

जीवन यात्रा के गुजरे हुए पड़ावों को याद करते हुए कभी-कभी नयन भीग जाते हैं। मन जल से भरा सरोवर हो जाता है जिसके दूसरे तीर से कुछ राजहंस जल में उतरते हैं और इस मनरूपी ताल (सरोवर) में क्रीड़ाएँ करने लगते हैं।

कशी पांगल्या प्रेयसी 
जुन्या विझवून चुली 
आश्वासती येत्या जन्मी 
होऊ तुमच्याच मुली

पुराने जीर्ण चूल्हों को बुझाकर मेरे प्रियजन अपने अपने स्थान लौटने लगे हैं। (इस जन्म में साथ रहनेवाले, मिलनेवाले, बिछड़ने लगे हैं।) उनका साथ बहुत प्यारा रहा। जाते-जाते वे आश्वासन देते जा रहे हैं कि अगले जन्म में तुम्हारी बेटियाँ बनकर आएँगे। (अगले जन्म में किसी ना किसी रूप में फिर मिलने का आश्वासन देकर साथी जा रहे हैं।)

मणी ओढता ओढता 
होती त्याचीच आसवे 
दूर असाल तिथे हो 
नांदतो मी तुम्हांसवें

यादों की सुमरनी के मनके फेरते-फेरते ना जाने कब वे अश्रुओं में परिवर्तित हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। (मन कल्पना करने लगता है कि एक दिन तुम सब भी मुझसे दूर हो जाओगे)। तुम दूर भी रहो तो दुःखी मत होना, मैं वहाँ भी हमेशा तुम्हारे साथ ही हूँ। 

                               🙏🙏🙏🙏🙏




शनिवार, 28 अगस्त 2021

नर हो, ना निराश करो मन को

 कवि मैथिलीशरण गुप्त जी की सुप्रसिद्ध कविता है -

'नर हो ना निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो।

जग में रहकर कुछ नाम करो,

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो ?

जब हम ‘नर हो, न निराश करो मन को’ पंक्ति को सुनते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई हमें चुनौती देते हुए  कह रहा हो कि मानव होकर तुम सांसारिक जीवन की छोटी कठिनाइयों  से घबरा जाते हो क्योंकि तुमने अभी तक जीवन की बाधाओं का सामना करना नहीं सीखा है। 

हम मनुष्य हैं और वीरता हमारे पास है। एक बार की असफलता से इस तरह से निराश नहीं होना चाहिए हमें परिस्थितियों का डटकर सामना करना चाहिए। एक छोटी सी चिड़िया भी कभी भी हार नहीं मानती है, वह अपने घोंसले को बनाने के लिए बहुत मेहनत करती है। दूसरी तरफ मनुष्य होता है जो छोटी-छोटी बात पर निराश होकर बैठ जाता है उसे कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने तक परिश्रम करते रहना चाहिए।

क्योंकि – 

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती।

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।।

जब कोई इंसान अपने लाभ या उन्नति के लिए काम करता है तो उसकी ताकत होता है उसका मानसिक बल। किसी विद्वान् ने कहा है – मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। जब तक मनुष्य को अपने मानसिक बल पर विश्वास होता है उसे कोई नहीं हरा सकता है, लेकिन जब मन मर जाता है तो व्यक्ति भी हार जाता है।

मन मनुष्य की समस्त शक्तियों का केंद्र है. किसी भी मनुष्य के व्यक्तित्व का दर्पण उसका मन ही है. कहा भी गया है –

तोरा मन दर्पण कहलाए,

भले बुरे सारे कर्मों को,

देखे और दिखाए,

तोरा मन दर्पण कहलाए..

इसी मानसिक बल के आधार पर  हनुमानजी ने विशाल सागर को पार कर लिया था। नेपोलियन और गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसी बल के आधार पर अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। हमारे वीर क्रांतिकारी यदि निराश होकर बैठ जाते तो क्या हम आजादी हासिल कर पाते ?

विश्व विजय प्राप्त करने वाले सिकंदर की सफलता का राज यही था कि उसने मन में विश्वविजय की ठान रखी थी. वहीं जब उसका मन शिथिल हुआ, मन की हार ही उसके पराजय का कारण बनी. पराक्रमी महान सम्राट अशोक ने कलिंग जैसे वैभवशाली साम्राज्य को जीत लेने के बाद भी स्वयं को पराजित महसूस किया क्योंकि निरपराध लोगों के प्राण लेने के लिए उसके मन ने उसे उत्तरदायी ठहराया।

जैसी हमारे मन की हालत होती है हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी वैसा ही हो जाता है। जब हमारा मन प्रसन्न रहता है तो हमें प्रकृति का हर रूप सुंदर लगता है, मौसम सुहाना लगता है, सब कुछ शुभ और मंगलकारी लगता है किंतु अगर मन ही दुखी और निराश हो तो प्रकृति का हर रूप नीरस लगता है, सब चीजें विकृत रूप में नजर आने लगती हैं.

कहने का तात्पर्य यह है कि मन की सबलता ही व्यक्ति की सबलता है. शारीरिक रूप से हट्टा कट्टा व्यक्ति भी निर्बल ही कहलाएगा यदि उसका मन निर्बल हो।

अतः हमें स्वयं को बार बार याद दिलाते रहना चाहिए कि -

नर हो, ना निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो।

भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने मनुष्य को कर्ममार्ग पर चलने के लिए कहा है। हमें अपने मन की शक्तियों को पहचानकर, उन्हें अपने लक्ष्य पर केंद्रित करके कर्म में जुट जाना चाहिए। ईश्वर ने हमें यह सारा संसार दिया है, सारे संसाधन हमारे पास हैं। इस दुनिया में दशरथ मांझी जैसे लोग भी हुए हैं जिन्होंने अपने परिश्रम से पर्वत को काटकर समतल कर दिया। 

विपरीत परिस्थितियों से लड़कर सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँचने वाले नरवीरों के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं और वर्तमान में भी ऐसे दृढनिश्चयी लोगों की संसार में कमी नहीं है। 

हमें कोई मार्ग दिखाएगा तब हम उस पर चलेंगे, ऐसा सोचकर निठल्ले बैठे रहनेवालों का जन्म व्यर्थ ही चला जाता है। अतः उठो, और अपने लिए मार्ग का निर्माण स्वयं ही करो।

कवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी कहा है :

ख़म ठोंक ठेलता है जब नर पर्वत के जाते पाँव उखड़।

मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।।

गुन बड़े एक से एक प्रखर।

हैं छिपे मानवों के भीतर।।


अगर मानव परिश्रम और साहस करना ही छोड़ देगा तो उसका समाज में विकास कैसे होगा? उसके लिए हर तरह की उन्नति के रास्ते बंद हो जायेंगे। इसीलिए मनुष्य को अपने मनुष्यत्व को सिद्ध करना ही होगा। कहते हैं ना कि भगवान भी उनकी ही मदद करता है जो अपनी मदद खुद करते हैं।

अगर कर्मठ लोग निराशा को हावी होने देते तो हमारे देश में और संसार में वो सब विकास आज तक हुए ही न होते जो अब तक  हुए हैं।

इसी वजह से कहा गया है कि नर होकर मन को निराश मत करो। निराशा की वजह से जीवन अंधकार से भर जाता है।

अंत में  इन पंक्तियों के साथ मैं उत्साह और आशावाद का आह्वान करती हूँ –

राह में मुश्किल होगी हजार,

तुम दो कदम बढाओ तो सही।

हो जाएगा हर सपना साकार, 

तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।।

मुश्किल है पर इतना भी नहीं, 

कि तू कर ना सके।

दूर है मंजिल लेकिन इतनी भी नहीं, 

कि तू पा ना सके।

तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।।

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