बुधवार, 31 जुलाई 2019

मंथन (भाग 1)

रचना एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका है। नौवीं और दसवीं कक्षा के बच्चों को पढ़ाती है। बी.एस.सी. बी. एड. होने पर भी शादी के बाद पाँच वर्षों तक घरेलू जिम्मेदारियों के कारण नौकरी का इरादा नहीं किया। वृद्ध सास ससुर गाँव में रहते थे सो उनकी सेवा के लिए कभी महीने दो महीने गाँव चली जाती। पति की नौकरी पुणे में थी इसलिए कुछ समय बाद पुणे आना पड़ता। परिस्थितियाँ चलचित्र की कहानी की तरह तेजी से मोड़ लेती गईं। सास-ससुरजी स्वर्ग सिधार गए। रचना एक बेटे की माँ बन गई। इधर कुछ कारणवश रचना के पति की नौकरी चली गई। रचना ने नौकरी की तलाश की। जल्दी ही उसे एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी मिल गई। तब तक उसका बेटा दीपक तीन वर्ष का हो चुका था. उसने अपने ही स्कूल में दीपक का दाखिला करा लिया ताकि साथ ले जाए और साथ ले आए। 

घरेलू परिस्थितियाँ ऐसी थी कि रचना के पति की नौकरी छूट चुकी थी। बिजनेस किया तो वहाँ भी घाटा ही हुआ। घर के पास ही एक दुकान किराए पर लेकर खोल ली, पर वह भी नहीं चली। 
उसमें भी कोई खास आमदनी नहीं हो रही थी ।

रचना शाम को घर पर ट्यूशन भी पढ़ा लेती थी । जिससे घर खर्च तो ठीक से चल जाता था । किंतु परिवार में अन्य खर्चे भी लगे रहते थे, जैसे लेन-देन, रिश्ते निभाना, शादी-ब्याह के न्यौते आदि के खर्चे। सारांशतः बचत तो शून्य ही थी।

ऐसे करते - करते दीपक ने सातवीं कक्षा पास कर ली। वह पढ़ाई में बहुत तेज था । उसके अंक कभी 90 प्रतिशत से कम नहीं आए। अपनी इकलौती संतान को लेकर रचना के मन में बहुत सपने थे। वह उसे इंजिनीयर बनाना चाहती थी। उसकी आगे की पढ़ाई में बहुत पैसा खर्च होगा, यह बात रचना के पति विजय के मन में भी बैठ गई थी। अतः उन्होंने कमजोर बिजनेस और दुकान को समेटकर फिर नौकरी की कोशिश शुरु कर दी। जल्दी ही उन्हें एक प्राइवेट कंपनी में एरिया सेल्स ऑफिसर की नौकरी मिल गई। काम के सिलसिले में तीन - तीन महीने घर से दूर रहना पड़ता था। तीन चार दिन के लिए लौटते और फिर वापस चले जाते टूर पर।

आठवीं कक्षा में दीपक तेरह वर्ष पार कर चुका था। इस उम्र में बच्चों में कई शारीरिक व मानसिक बदलाव आते हैं। उनको अब माता - पिता के संग - साथ की अधिक आवश्यकता होती है। दीपक को पिता का साथ व मार्गदर्शन बहुत ही कम मिल रहा था। वहीं रचना को एक कोचिंग सेंटर में पढ़ाने का प्रस्ताव मिला। वहाँ बढ़ोतरी की काफी संभावना थी। रचना ने दीपक से बात की तो दीपक ने एक समझदार बच्चे की तरह मम्मी की समस्या का हल  निकाल दिया । उसने वादा किया कि वह शाम को अकेले घर पर रह लेगा और कोई शरारत नहीं करेगा। रचना ने कोचिंग सेंटर जॉइन कर लिया। वह स्कूल से आने के बाद दीपक को थोड़ी देर खेलने देती थी। फिर खिला - पिला कर सुला देती और थर्मस में दूध रखकर, शाम का नाश्ता तैयार कर वह साढ़े तीन बजे कोचिंग सेंटर में पढ़ाने चली जाती। बाहर से ताला लगा जाती घर को। दीपक नींद पूरी करके उठता,ऩाश्ता करता, दूध पीता और स्कूल से मिला गृहकार्य पूरा करता। कभी ड्राईंग कर लेता तो कभी टी वी देख लेता था । शाम सात बजे रचना घर लौटती थी और दीपक को थोड़ी देर खेलने बाहर भेजती थी. खुद रात का खाना बनाकर और अन्य काम निपटाकर दीपक की पढ़ाई कराती। छःमाही परीक्षा तक सब सही चला। 
दीपावली की छुट्टियों के बाद जब दीपक फिर से स्कूल जाने लगा तब उसके व्यवहार में परिवर्तन दिखने लगा । स्कूल के शिक्षक रचना को आदर्श शिक्षिका मानते थे और उसकी बहुत इज्जत करते थे । रचना को बुलाकर दीपक की शिकायत देना उनके लिए भी तकलीफ वाला काम था, फिर भी उन्हे अपना कर्तव्य तो निभाना था । दीपक पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहा, आज कक्षा में सो गया, दूसरों को डिस्टर्ब करता है, आज टीचर को उल्टा जवाब दिया, बेवजह हँसते रहता है जैसी शिकायतें आने लगीं। रचना रोज उसे समझाती, कभी डाँटती और कभी कोसती भी कि तेरी वजह से स्कूल में मेरा नाम खराब हो रहा है।

उधर दीपक कहता - माँ आपने मुझे अपने स्कूल में क्यों  डाला ? क्या मैं अकेला ही शरारत करता हूँ?  और बच्चे भी तो करते हैं। पर टीचर्स मुझे ही ज्यादा डाँटते हैं क्योंकि मैं आपका बेटा हूँ ना ! अनीता टीचर सब बच्चों के सामने अपमान करती हैं। कहती है - “तू तो किसी भी एंगल से रचना टीचर का बेटा नहीं लगता, कहाँ माँ कहाँ बेटा!” फिर मैं उनको उल्टा जवाब क्यों न दूँ? 

अन्य बच्चों से तुलना होने पर दीपक के कलेजे पर छुरियाँ चल जाती और वह विद्रोही होता चता जा रहा था। अगले पीरियड में उस टीचर को तंग करने की नई योजना बनाता या फिर टीचर की हर बात पर  भावहीन, निर्विकार चेहरा बनाकर उसे जता देता कि बकती रहो मेरी बला से।

जैसे तैसे आठवीं का वर्ष पूरा हुआ। दीपक के 80 प्रतिशत अंक आए और कक्षा में पाँचवाँ स्थान। पहले दूसरे स्थान पर आने वाला बच्चा पिछड़ रहा था और इससे रचना मानसिक रूप से परेशान रहने लगी। उसने दीपक  से उम्मीदें भी तो बहुत ज्यादा लगा रखी थी ।
( क्रमश:)

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

कमला (भाग - 2)

(गतांक से आगे)
गाँव मे दशहरे दीवाली के आसपास अनेक कलाकार, गायक, नाच - तमाशेवाले अपना हुनर दिखाकर कुछ कमाने की आस में चले आते थे। इस समय किसान भी फसल कटाई करके फुर्सत में और आनंदित रहते थे। कीर्तन, प्रवचन, गायन, नृत्य, रामलीला आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम पूरे कार्तिक माह चला करते। उस वर्ष अपनी मंडली के साथ गाँव में दाखिल हुआ, एक उत्कृष्ट गायक – सुंदर ।
सुंदर की तारीफें अजेयसिंह तक पहुँचीं और उनके आमंत्रण पर एक दिन हवेली में सुंदर की स्वर लहरियाँ गूँज उठीं। खास मेहमानों के साथ कमला भी श्रोताओं में उपस्थित थी। आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी सुंदर ने अपने दिव्य गायन से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। सुंदर के सुरों में कमला ऐसी खोई कि टकटकी लगाकर उसे देखती रह गई। हर गीत पर कमला की तालियाँ, उसके चेहरे से टपकती प्रशंसा ने सुंदर का ध्यान आकर्षित किया। यह सौंदर्य की मूरत है या साक्षात कला की देवी सरस्वती ? सुंदर का मन उसी क्षण अपना स्थान छोड़, कमला के पास चला गया था। उस रात सुंदर का हर गीत, हर सुर सिर्फ कमला के लिए था।  
नियत समय पर सारी कला मंडलियाँ पुरस्कार, इनाम पाकर अपने अपने स्थान को लौट चलीं किंतु सुंदर बीमारी का बहाना बनाकर गाँव में ही रुक गया। उसने गाँव में एक मित्र बना लिया था। उसी के घर रहता था। 
कुछ ही दिनों में गाँव के बाहर सूनी दोपहरी में क्षिप्रा तट पर एक अलग ही महफिल सजने लगी, सुंदर और कमला की गुप्त महफिल ! मिलन के मूक गीत, प्रेम के खामोश सुर और स्पर्श की मौन स्वर लहरिय़ाँ अमराई से लेकर क्षिप्रा तट तक बिखरने लगीं। सुंदर के प्रेम में आकंठ डूबी कमला कहाँ जान पाती कि उसके भाग्य में क्या बदा है ?
एक दिन एक वफादार नौकर ने देख ही लिय़ा और उनके प्रेमगीतों की गूँज ठाकुर अजेयसिंह के कानों तक पहुँच ही गई। उसी रात हवेली में सुंदर और कमला के प्रेम की चिता तैयार की गई। हवेली के पीछे बाग में सुंदर के शरीर से चमड़ी उधेड़ी जा रही थी तो दूसरी ओर पुआल की कोठरी में कमला को मार - मार कर बेदम किया जा रहा था। 
उस रात के बाद सुंदर को किसी ने नहीं देखा। वह कहाँ गया, पूछने का ना किसी में साहस था ना जरूरत थी। जिसे जरूरत थी, वह जब होश में आई तो उसके होठ हिलकर रह गए। उस रात के बाद कमला कभी नहीं बोली। खौफ ने उसकी वाणी को छीन लिय़ा था।

कुछ दिनों की कानाफूसी के बाद गाँव की जिंदगी अपने ढ़र्रे पर आ गई लेकिन कमला जीवन भर उसी एक रात को भोगती झेलती रही। एकांत को उसने अपना चिरसंगी बना लिया था। आया उमादेवी के स्नेह ने उसे मरने से तो बचा लिया था किंतु वह जीवित लाश-सी बनकर रह गई थी। अजेयसिंह से अपनी लाडली बेटी की यह दशा देखी नहीं जाती थी। कभी - कभी उन्हें लगता कि उन्होंने कमला के साथ अच्छा नहीं किया। कमला के मनोरंजन के लिए उन्होने अपने प्रयत्नों में कोई कमी नहीं छोड़ी लेकिन वह तो पाषाण हो गई थी जैसे.....
कुछ वर्ष बीते। फिर कब कमला हवेली की चौखट पार कर बाहर आने लगी, कब सुबह से साँझ तक क्षिप्रा तट पर बैठने लगी, किसी को याद नहीं। कभी - कभी वह गाँव में आ निकलती….उसके हाथ में एक गठरी होती, जिसमें क्या था, किसी को पता नहीं। बच्चे पगली - पगली कहकर चिढ़ाते तो मारने दौड़ती और वापस नदीतट पर जाकर बैठ जाती। दोपहर को उमादेवी उसे जबरन घर ले जाकर कुछ खिला - पिला देतीं। दोपहर बाद पुनः कमला नदिया किनारे पत्थर पर बैठी पाई जाती। साँझ ढलने पर उमादेवी उसे ले जातीं। उसे कैद करके रखने की कोशिश की गई तो उसने अन्न जल ही त्याग दिया। लाचार होकर सबने उसे अपने हाल पर छोड़ दिया।
कई वर्ष बीत गये। अजेयसिंह पर वृद्धावस्था का प्रभाव दिखाई देने लगा। उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। कमला के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। परिवर्तन सिर्फ भौतिक शरीर में आया। सौंदर्य की प्रतिमा कमला अब कुरूप लगने लगी। बड़ी - बड़ी खूबसूरत आँखें गड्ढों में धँस गईँ। तपे कुंदन सा रंग साँवला पड़ गया था। कुछ नहीं बदला था, तो काले-घने मेघों सी वह घुटनों तक पहुँचती केशराशि.....
एक दोपहर वृद्ध अजेयसिंह लाठी टेकते हुए क्षिप्रा किनारे पहुँचे। अपराध बोध से वे भी टूट चुके धे अंदर ही अंदर….. 
धीमे – धीमे चलते कमला के पास जाकर बैठ गए। कमला ने एक बार नजर उठाकर उन्हें देखा। फिर उसी तरह निर्विकार बैठी, बहते जल को ताकती रही। अजेयसिंह ने कमला के कंधे पर हाथ रखकर कहा, “बिटिया, मुझे माफ कर दो।"
कमला ने अपनी सूनी आँखें पिता की नजरों में उतार दीं। उस दृष्टि से अजेय सकपका गए। उस दृष्टि का सामना करने की अजेयसिंह में हिम्मत नहीं थी। निगाहें शून्य में गड़ाकर, अपना काँपता हाथ कमला के सिर पर फेरते हुए बोले - "बिटिया, मेरे जाने की घड़ी नजदीक आ रही है। मेरे पीछे तुझे कौन सँभालेगा ? तेरी चिंता से बँधे ये पापी प्राण मुक्त नहीं हो पाएँगे....साँसें अटकेंगी मेरी तुझमें!!! सुंदर कभी नहीं आएगा, मर चुका है वह.....मैंने ही मरवा दिया था उसे...."
अचानक ना जाने क्या हुआ, विक्षिप्त से अजेयसिंह खड़े हुए, कमला के कंधों को पकड़ उसे झकझोरकर अट्टहास करते हुए बोले, " सुन रही है तू ? मैंने ही मरवा दिया था उसे!"
फिर कुछ क्षणों बाद वह विक्षिप्त अट्टहास कातर रुदन में बदल गया.....
पर कमला वैसी ही बैठी रही....निर्विकार और सुन्न!!! पत्थर की मूरत !!!
पगलाए से अजेयसिंह शिथिल कदमों से लौट गए।

साँझ ढलने से कुछ पूर्व, अपनी गठरी को सीने से चिपकाए कमला क्षिप्रा की गहरी धार में उतरती  चली गई.....
गाँव के बालक कभी-कभी पूछते – ‘वह पगली कहाँ चली गई?’
………  

सोमवार, 29 जुलाई 2019

कमला (भाग - 1)

क्षिप्रा की हरियाली घाटियों के बीच बसा हुआ था एक छोटा सा खूबसूरत गाँव – रुद्रपुर । गाँव के पास से बहती हुई क्षिप्रा अल्हड़ बालिका के समान उछलती कूदती नहीं थी बल्कि शांत – सुघड़ नवयौवना सी मंद-मंथर चाल से बहती जाती थी । इसी सुंदर सरिता तट पर दूर - दूर तक फैले हरे भरे खेत, उसके बाद आम की सघन अमराई और अमराई से लगकर था  ग्रामदेवी का सुंदर मंदिर।
यहीं से शुरू होती थी गाँव की सीमा। सीमा सें प्रवेश करते ही नजरों को बाँध लेती थी लाल पत्थरों की एक विशालकाय हवेली ! ठाकुर अजेयसिंह की वह हवेली गाँव की शान भी थी और ग्रामवासियों के आदर सम्मान का केंद्र भी । अजेयसिंह के दादा सुजेयसिंह ने बनवाई थी वह हवेली, जो अपने जमाने के बड़े रईस थे। समय के साथ जमींदारी गई। रईसी शौकों की वजह से खजाना खाली होने लगा लेकिन हवेली की आन - बान में कोई कमी नहीं आई। जमीन जायदाद अभी भी बहुत थी और गाँव में अजेयसिंह का सम्मान भी कम नहीं था।
विवाह के आठ वर्ष बाद अजेय की पत्नी तारा की गोद एक कन्या रत्न से भरी। इस संतान के लिए पति पत्नी ने बड़ी मन्नतें माँगी थीं, पूजा पाठ किए थे। बेटे की आस थी ताकि वंशवृद्धि हो किंतु इतने दिनों बाद संतान होने की खुशी भी कम ना थी। बेटी थी भी तो कितनी सुंदर. परीकथाओं की परियों सी ! केशर घुले दूध सा वर्ण, बड़ी - बड़ी गहरी काली आँखें, घनी पलकें, कमल नाल सा नाजुक शरीर ! कमल के फूल सी सुंदर, लक्ष्मी सी बिटिया का नाम रखा गया – कमला ।
किंतु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। कमला के जन्म के छः महीने बाद ही तारा स्वर्ग सिधार गई। कमला को सँभालने की जिम्मेदारी आया उमादेवी को सौंपकर अजेयसिंह ज्यादातर घर से बाहर ही रहने लगे। काम में डूबे रहने से पत्नी के बिछोह का गम कुछ हद तक भूल जाते थे। इधर कमला अपने दुर्भाग्य से अनजान, हँसती किलकारी मारती, सारी हवेली में अपने नन्हे - नन्हे पैरों की पायल छनकाती, दौड़ने लगी। चंचलता के साथ - साथ स्वतंत्रता का गुण भी उसमें जन्मजात ही था। उसके मन के विरुद्ध कोई भी उससे कुछ भी नहीं करा सकता था। ना नहलाना, ना खिलाना। 
जबर्दस्त मनमौजी लड़की थी कमला ! अजेयसिंह थोड़ा बहुत समझाते और यह सोचकर छोड़ देते कि वक्त के साथ सीख जाएगी। आया उमादेवी परेशान होती। नियम, संस्कार, अनुशासन सिखाने का हर प्रयत्न विफल रहा था। कमला के ऐसे लक्षण देख कर अजेय ने उसे पढ़ाने-लिखाने का विचार स्थगित ही कर दिया था।
जैसे - तैसे कमला तेरह वर्ष की उम्र तक पहुँच गई। बात-बात पर ऐसा खिलखिला कर हँसती कि सूनी हवेली की दीवारें खनक उठतीं। आया उमादेवी उसे शांत संयमी बनने का पाठ पढ़ाती, मगर उद्दाम वेग से बहती नदी को बाँध सका है कोई?  हवेली की दीवारें उसे कैद ना रख पातीं और वह अकेली बाहर निकल जाती। चौकीदार से लेकर नौकरों और खेतों में काम करने वाले मजदूरों पर उसका रोब चलता था। दो वर्ष ऐसे ही बीते ।
आखिर उसका विवाह कर देना ही एकमात्र उपाय सूझा। नजदीक के गाँव से अच्छा घर-वर देखकर धूमधाम से कमला का ब्याह रचा दिया गया। दो महीने में ही कमला ने ससुराल वालों की नाक में दम कर दिया। वहाँ भी वही, बच्चों सा कूदना - फाँदना, जोर - जोर से खिलखिलाकर हँसना. जब मन आए नहाना,जब मन आए खाना। बारिश आई तो पति का हाथ पकड़कर फुहारों में भीगने के लिए ले  गई। वह बेचारा हाथ छुड़ाकर यूँ अंदर दौड़ा मानो सैकड़ों मधुमक्खियों ने डंक मार दिया हो और कमला अल्हड़ बालिका सी छत पर खड़ी बारिश में भीगने का मजा ले रही थी, उछल रही थी, तालियाँ पीट रही थी ! बालिका ही तो थी वह, आदर्श कुलवधू के गुण उसमें ना आने थे और ना आए। 
यह दृश्य देखकर सास ननद ने अपना सिर पीट लिया और अगले ही दिन बड़ी समझदारी से उसे मायके पहुँचा दिया, यह कहकर कि लड़की मतिमंद है। अजेयसिंह पर मानो बिजली गिर पड़ी। घंटों अपनी पत्नी तारा के चित्र के आगे बैठे आँसू बहाते रहे मानो पूछ रहे हों, कैसे सँभालूँ मैं तुम्हारी लाडली को ? बेटी से प्रेम भी बहुत था और मान मर्यादा की चिंता भी कम नहीं थी। 
ससुराल से लौटने पर भी कमला उतनी ही प्रसन्न थी, उतनी ही खिलंदड़ी ! गाँव में दबे स्वर में बातें होतीं। सामने कुछ कहने का साहस किसमें था ?  इन सबसे बेखबर कमला, खेतों से बगीचों तक, अमराई से क्षिप्रा त़ट तक भटकती रहती। पंछियों से, पेड़ों से, फूलों से, पत्थरों से बातें करती रहती। गाँव में अजेयसिंह का मान सम्मान और दबदबा इतना था कि अकेली स्वच्छंद सारे गाँव में भटकती कमला की ओर गलत नजरों से देखने की हिम्मत किसी में नहीं थी। 
समय बीतता गया। कमला सोलह वर्ष की हो गई। यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही उसके व्यवहार में परिवर्तन आया। स्वच्छंद, बेलगाम और बेखौफ स्वभाव अब थोड़ा शांत, शालीन और अंतर्मुख होने लगा। इस बात से पिता अजेय और आया उमादेवी ने राहत की साँस ली।     
( क्रमशः ) 

मंगलवार, 2 जुलाई 2019

काश !


"माँ, नदी देखने चलोगी ?"

मेरे बीस वर्ष के बेटे ने ये सवाल किया तो लगा सचमुच वह बड़ा हो गया है । वह अच्छी तरह जानता है मुझे नदी देखना कितना अच्छा लगता है।

बारिश के मौसम में उफनती नदी को देखना ऐसा लगता है मानो किसी ईश्वरीय शक्ति का साक्षात्कार हो रहा हो । रेनकोट पहनकर मैं तुरंत तैयार हो गई । तेज बारिश हो रही थी। दस मिनट में हम पुल पर थे जिसके नीचे से उल्हास नदी अपने पूरे सौंदर्य और ऊर्जा के साथ प्रवाहमान हो रही थी ।

"बाबू , चल ना दो मिनट किनारे तक चलें, कोई रास्ता है क्या
नीचे उतरने का ?" मैंने पूछा।

"हाँ , है तो । लेकिन सिर्फ दो मिनट क्योंकि इस समय काफी सुनसान रहता है वहाँ नीचे। पुल के ऊपर से आप चाहे जितनी देर देख लो ।"

पुल से नीचे उतरने वाली ढलान पर गाड़ी रोक कर लॉक की और हम नीचे उतर कर नदी के किनारे खड़े हो गए ।

उस वक्त नदी में कल-कल का संगीत नहीं था, घहराती हुई गर्जना थी .. तभी कुछ दूरी पर किनारे बैठे युवक की ओर ध्यान खिंच गया । वह घुटनों में सिर छुपाए बैठा था । दीन - दुनिया से बेखबर !

मैंने बेटे की ओर देखा लेकिन मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरा समझदार सुपुत्र बोल उठा, "बस, अब आप कुछ कहना मत । वह लड़का वहाँ क्यों बैठा है, कौन है , ये सब मत पूछना प्लीज.. अब जल्दी चलें यहाँ से।"

"लेकिन वह अकेला क्यों बैठा है ? डिप्रेशन का शिकार लग रहा है बेचारा।"
     
"कुछ नहीं डिप्रेशन - विप्रेशन । ये अंग्रेज चले गए डिप्रेशन छोड़ गए । जिम्मेदारियों से भागने का सस्ता और सरल उपाय! बस डिप्रेशन में चले जाओ । आप नहीं जानतीं। ये चरसी या नशेड़ी होगा कोई । आप चलो अब ।"

"अरे , मैं नहीं बात करूँगी, तू तो एक बार पूछ कर देख। शायद उसे किसी मदद की जरूरत हो ।"

"नहीं ममा, आप चलो अब । बारिश बढ़ गई है और यह जगह
कितनी सुनसान है ।" अब बेटे के स्वर में चिढ़ और नाराजगी साफ जाहिर हो रही थी ।

मजबूर होकर मैं घर चली आई । घुटनों में सिर छुपाए बैठा वह लड़का दिमाग से निकल ही नहीं रहा था ।

अगले दिन.....सुबह सैर के लिए निकली । पड़ोस के जोगलेकर जी हर सुबह नदी किनारे तक सैर करके आते हैं । मैं नीचे सड़क पर आई तो वे मिल गए । हर रोज की तरह प्रफुल्लित नहीं लग रहे थे ।  मैंने पूछा -- "क्या बात है भाई साहब, तबीयत ठीक नहीं है क्या ?"

थके से स्वर में बोले, "क्या बताऊँ, सुबह-सुबह इतना दुःखद दृश्य देखा । नदी से दो लाशें निकाली हैं पुलिस ने । एक लड़के और लड़की की । आत्महत्या का मामला लग रहा है ।"

मेरा सिर चकरा गया । घुटनों में सिर छुपाए वह लड़का आँखों के सामने घूम गया । कहीं वही तो नहीं.....

जिंदगी में अनेक बार ऐसे प्रसंग आए हैं जब घटना घटित हो जाने के बाद सोचती रह गई हूँ --

काश.......

विशिष्ट पोस्ट

अखेरचे येतील माझ्या : हिंदी अनुवाद

मेरे प्रिय कवि मंगेश पाडगावकर जी की एक सुंदर मराठी कविता का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है। आप इस सुमधुर भावगीत को यहाँ सुन सकते हैं। https://yout...

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