शुक्रवार, 11 मार्च 2022

दया का अधिकार (एक संस्मरण)

उस समय मैं पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी। सरकारी स्कूल था, हिंदी माध्यम का। स्कूल में एक बड़ा-सा थालनुमा घंटा था, जिसे बड़े-से हथौड़ेनुमा डंडे से बजा कर स्कूल की चपरासी दया बच्चों को स्कूल की समय-सारिणी का ज्ञान कराती थी। 

अधिकतर बच्चों के कान शिक्षिका के पढ़ाने पर कम और घंटे की ध्वनि की ओर अधिक लगे रहते थे, विशेषकर आधी छुट्टी के पहले और छुट्टी के पहले वाले पीरियड में। 

स्कूल की चपरासी दया इस कार्य को पूरी कर्तव्यनिष्ठा और तत्परता से अंजाम देती थी। क्या मजाल कि पाँच मिनट पहले छुट्टी का घंटा बजा दे।

उस समय शिक्षक और माता-पिता बच्चों की सार्वजनिक बेइज्जती और पिटाई को अपना अधिकार समझते थे और बच्चों में सुधार के लिए जरूरी भी। 

जैसे - अगर किसी बच्चे के कम अंक आए या उसने कोई बदमाशी की, तो माँ जब तक पड़ोस की चाची/ बुआ/ मौसी को बुलाकर उनके सामने सारा कच्चा चिट्ठा ना बखान कर दें और वे चाची/ बुआ/ मौसी पूरे अधिकार सहित बच्चे के कान ना उमेठ दें या एक लंबा चौड़ा भाषण सुना ना दें तब तक माँ के कलेजे में ठंडक ना पड़ती।

 इसी तरह टीचर भी जब तक बच्चों के गलत उत्तरों को पूरी कक्षा के सामने पढ़कर ना सुना दें, तब तक उत्तर पुस्तिकाओं का बंडल कक्षा से रवाना नहीं किया जाता था।

एक बार नागरिक शास्त्र में प्रश्न आया - 'दया का अधिकार क्या है और यह अधिकार किसे होता है ?' 

जवाब में एक बच्चे ने लिखा -  

'दया का अधिकार है, स्कूल का घंटा बजाकर बच्चों को छुट्टी देना । यह अधिकार हमारे स्कूल की चपरासी दया को होता है।'

जाहिर सी बात है कि गुरुदेव ने इस अधिकार को सार्वजनिक रूप से कक्षा में ही घोषित नहीं किया बल्कि मॉनिटर को भेजकर दया को कक्षा में बुलवाया और उसे भी उसके अधिकार से परिचित करा दिया।

इस नई सूचना से दया बड़ी प्रसन्न हुई और खी - खी कर हँस पड़ी। बेचारा बच्चा बिना छड़ी की इस मार से शर्म से पानी-पानी हो रहा था।

गोस्वामी तुलसीदासजी सुंदरकांड में कह गए हैं - 

"भय बिनु होंहिं ना प्रीति" 

हमारे शालेय जीवन में हमारे शिक्षक शायद इसी कथन/उक्ति को सार्थक करते हुए, विद्यार्थियों के मन में भय का ऐसा बीज बोते थे कि उस बीज से विद्यार्थियों के जीवन में अनुशासन की, सदाचार की और गुरुजनों के प्रति सम्मानमिश्रित प्रेम की फसल लहलहाती थी ।

आज वह जमाना नहीं रहा जब शिक्षकों के सामने बच्चों की आँखें नहीं उठती थी। आज तो मेरी समझ में दया का अधिकार विद्यार्थियों को है। वे चाहें तो अपने शिक्षक और माता-पिता पर दया करके पढ़ाई पर और अनुशासन पर ध्यान दें और ना चाहें तो ना दें। 


      

मंगलवार, 8 मार्च 2022

महिला दिवस

  सच कहूँ,

महिला दिवस अब बेमानी लगता है।

तीन दिन पहले ही, महिला दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित था महिला कवि सम्मेलन।

सारी विदुषी कवयित्रियों का मधुर मिलन ।

एक कवयित्री कविता पढ़ रही थी, पीछे कुछ विदुषियाँ फुसफुसाकर उस पर फब्तियाँ कस रही थीं

"क्या कविता है,बकवास है एकदम। तुझे कुछ समझ में आई ?"

जवाब में दबी दबी सी हँसी के फव्वारे छूटे।

पर मंच से नीचे आते ही "वाह ! वाह !", "जबर्दस्त !" के बताशे बिखरने लगे।  

झूठी कहीं की !!! 

मंच पर बोलेंगी - "मैं सावित्री, मैं द्रौपदी, मैं सीता, 

                       मुझ पर क्या क्या नहीं बीता ?"

और पीठ पीछे अपनी ही सखियों का चीरहरण करने में कसर ना छोड़ेंगी।

आज दोपहर मेरी कामवाली बाई (maid) वनिता कुछ देर से आई।

वही maid, जिसके एक दिन ना आने से  हम सारी self made वीरांगनाओं की टें बोल जाती है। 

मैंने कहा, "वनिता, आज काम नहीं है, आज तुमको छुट्टी। "

वनिता का चेहरा पहले खिला, फिर मुरझाया। 

"क्या हुआ, छुट्टी मिलने की खुशी नहीं हुई तुझे ?"

"आपने तो छुट्टी दिया दीदी पर नीचे वाली मैडम के घर डबल काम है आज, वो क्या बोलते उसको ? लेडीज लोग का कोई सण (त्योहार ) है ना दीदी ? तो पार्टी है उसके घर।"

त्योहार लेडीज लोग का है ना, तो कुछ लेडीज का दूसरी लेडीज से डबल काम कराना तो बनता है !!!

वाह रे महिला दिवस !!!

फिर हुई शाम। पतिदेव पधारे। सुबह सुबह ही HAPPY WOMEN'S DAY का संदेश भेजकर मुझे मेरी जाति का बोध करानेवालों में वे भी एक हैं।

काम के बोझ से उनका मूड कुछ ऑफ था। उसका थोड़ा प्रसाद तो मुझे मिलना ही था। मैं उनकी अर्धांगिनी जो ठहरी। 

(अर्धांगिनी का पुल्लिंग शब्द कहीं प्रयोग होते हुए किसी ने सुना हो तो बताएँ। मैंने नहीं सुना आज तक।)

 ऐसे मौकों पर रानी लक्ष्मीबाई, कल्पना चावला, इंदिरा गांधी, किरण बेदी, बछेंद्री पाल आदि की स्मृतियाँ भी मुझमें वीरांगना वाला भाव नहीं भर पाती हैं । तो हमेशा की तरह आज भी अपने स्वाभिमान के गांडीव को ताक पर रखकर मैंने महान धनुर्धर अर्जुन का स्मरण किया और सोचा, "छोड़ो, अपनों से क्या लड़ना।"

कृष्ण मेरे घर के मंदिर में बैठे मंद मंद मुस्कुरा रहे थे, उन्होंने मुझे गांडीव उठाने को कहने का रिस्क नहीं लिया।

HAPPY WOMEN'S DAY

  और भी बहुत से किस्से हैं महिला दिवस के, पर अभी ज्यादा लिखने का मूड नहीं है। 

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

आता विसाव्याचे क्षण : नमन स्वर कोकिला🙏

 आज हम सबकी प्रिय गायिका सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर परमतत्त्व में विलीन हो गईं। लताजी के गाए हुए मेरे प्रिय गीतों में से एक, मराठी गीत का अपनी क्षमतानुसार हिंदी अनुवाद करने का मैंने प्रयत्न किया है। गीत के बोल और भावों के साथ संपूर्ण न्याय करते हुए लता दीदी ने इसे जब गाया तो अफवाह फैल गई कि इस गीत में लता दीदी ने अपने जीवन की संध्याकाल का और गायन कार्य से निवृत्ति लेने का संकेत दिया है। बाद में लता जी ने इस बात का खंडन किया। परंतु जब-जब इस गीत को सुनती हूँ, आँखें नम अवश्य हो जाती हैं। 

मराठी के सुप्रसिद्ध कवि बालकृष्ण भगवंत बोरकर की यह कविता लताजी का स्वर पाकर अजर अमर हो गई है। 

आप इस गीत को यहाँ सुन सकते हैं :

https://youtu.be/H4-TtMhOJyg


आता विसाव्याचे क्षण
माझे सोनियाचे मणी
सुखे ओविता ओविता
त्याची ओढतो स्मरणी

हर उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख से गुजरकर, जीवन को भरपूर जीने के बाद जीवन की संध्याकाल में पहुँचकर मन विश्राम की इच्छा करता है। जीवन की भाग दौड़ के बाद अब विश्राम के क्षणों को जीने का, उनका आनंद लेने का समय है।  सारी सुनहरी यादें, वे सारे सुनहरे क्षण सोने के मोती हो गए हैं। मधुर स्मृतियों के ये मोती मन की स्मरणी (सुमरनी) में पिरोकर उस सुमरनी को फेरने का यह भावविभोर करनेवाला समय है।

काय सांगावे नवल 
दूर रानीची पाखरे
ओल्या अंगणी नाचता 
होती माझीच नातरे

मैं विस्मय विमुग्ध हूँ। आनंद के क्षणों की झड़ी लग गई है। इस वर्षा से मेरे मन का आँगन गीला है। इस गीले नम आँगन में दूर किसी वन के पक्षियों का झुंड उतरा है। उन छोटे-छोटे पक्षियों का नृत्य मुझे अपने नन्हें नन्हें नाती-पोतों की याद दिलाता है। मानो दूर देश में रहनेवाले मेरे नाती-पोते मेरे आँगन में खेलने आ गए हैं।

कधी होती डोळे ओले 
मन माणसाची तळी 
माझे पैलातले हंस 
डोल घेती त्याच्या जळी

जीवन यात्रा के गुजरे हुए पड़ावों को याद करते हुए कभी-कभी नयन भीग जाते हैं। मन जल से भरा सरोवर हो जाता है जिसके दूसरे तीर से कुछ राजहंस जल में उतरते हैं और इस मनरूपी ताल (सरोवर) में क्रीड़ाएँ करने लगते हैं।

कशी पांगल्या प्रेयसी 
जुन्या विझवून चुली 
आश्वासती येत्या जन्मी 
होऊ तुमच्याच मुली

पुराने जीर्ण चूल्हों को बुझाकर मेरे प्रियजन अपने अपने स्थान लौटने लगे हैं। (इस जन्म में साथ रहनेवाले, मिलनेवाले, बिछड़ने लगे हैं।) उनका साथ बहुत प्यारा रहा। जाते-जाते वे आश्वासन देते जा रहे हैं कि अगले जन्म में तुम्हारी बेटियाँ बनकर आएँगे। (अगले जन्म में किसी ना किसी रूप में फिर मिलने का आश्वासन देकर साथी जा रहे हैं।)

मणी ओढता ओढता 
होती त्याचीच आसवे 
दूर असाल तिथे हो 
नांदतो मी तुम्हांसवें

यादों की सुमरनी के मनके फेरते-फेरते ना जाने कब वे अश्रुओं में परिवर्तित हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। (मन कल्पना करने लगता है कि एक दिन तुम सब भी मुझसे दूर हो जाओगे)। तुम दूर भी रहो तो दुःखी मत होना, मैं वहाँ भी हमेशा तुम्हारे साथ ही हूँ। 

                               🙏🙏🙏🙏🙏




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