उस समय मैं पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी। सरकारी स्कूल था, हिंदी माध्यम का। स्कूल में एक बड़ा-सा थालनुमा घंटा था, जिसे बड़े-से हथौड़ेनुमा डंडे से बजा कर स्कूल की चपरासी दया बच्चों को स्कूल की समय-सारिणी का ज्ञान कराती थी।
अधिकतर बच्चों के कान शिक्षिका के पढ़ाने पर कम और घंटे की ध्वनि की ओर अधिक लगे रहते थे, विशेषकर आधी छुट्टी के पहले और छुट्टी के पहले वाले पीरियड में।
स्कूल की चपरासी दया इस कार्य को पूरी कर्तव्यनिष्ठा और तत्परता से अंजाम देती थी। क्या मजाल कि पाँच मिनट पहले छुट्टी का घंटा बजा दे।
उस समय शिक्षक और माता-पिता बच्चों की सार्वजनिक बेइज्जती और पिटाई को अपना अधिकार समझते थे और बच्चों में सुधार के लिए जरूरी भी।
जैसे - अगर किसी बच्चे के कम अंक आए या उसने कोई बदमाशी की, तो माँ जब तक पड़ोस की चाची/ बुआ/ मौसी को बुलाकर उनके सामने सारा कच्चा चिट्ठा ना बखान कर दें और वे चाची/ बुआ/ मौसी पूरे अधिकार सहित बच्चे के कान ना उमेठ दें या एक लंबा चौड़ा भाषण सुना ना दें तब तक माँ के कलेजे में ठंडक ना पड़ती।
इसी तरह टीचर भी जब तक बच्चों के गलत उत्तरों को पूरी कक्षा के सामने पढ़कर ना सुना दें, तब तक उत्तर पुस्तिकाओं का बंडल कक्षा से रवाना नहीं किया जाता था।
एक बार नागरिक शास्त्र में प्रश्न आया - 'दया का अधिकार क्या है और यह अधिकार किसे होता है ?'
जवाब में एक बच्चे ने लिखा -
'दया का अधिकार है, स्कूल का घंटा बजाकर बच्चों को छुट्टी देना । यह अधिकार हमारे स्कूल की चपरासी दया को होता है।'
जाहिर सी बात है कि गुरुदेव ने इस अधिकार को सार्वजनिक रूप से कक्षा में ही घोषित नहीं किया बल्कि मॉनिटर को भेजकर दया को कक्षा में बुलवाया और उसे भी उसके अधिकार से परिचित करा दिया।
इस नई सूचना से दया बड़ी प्रसन्न हुई और खी - खी कर हँस पड़ी। बेचारा बच्चा बिना छड़ी की इस मार से शर्म से पानी-पानी हो रहा था।
गोस्वामी तुलसीदासजी सुंदरकांड में कह गए हैं -
"भय बिनु होंहिं ना प्रीति"
हमारे शालेय जीवन में हमारे शिक्षक शायद इसी कथन/उक्ति को सार्थक करते हुए, विद्यार्थियों के मन में भय का ऐसा बीज बोते थे कि उस बीज से विद्यार्थियों के जीवन में अनुशासन की, सदाचार की और गुरुजनों के प्रति सम्मानमिश्रित प्रेम की फसल लहलहाती थी ।
आज वह जमाना नहीं रहा जब शिक्षकों के सामने बच्चों की आँखें नहीं उठती थी। आज तो मेरी समझ में दया का अधिकार विद्यार्थियों को है। वे चाहें तो अपने शिक्षक और माता-पिता पर दया करके पढ़ाई पर और अनुशासन पर ध्यान दें और ना चाहें तो ना दें।