मंगलवार, 30 जुलाई 2019

कमला (भाग - 2)

(गतांक से आगे)
गाँव मे दशहरे दीवाली के आसपास अनेक कलाकार, गायक, नाच - तमाशेवाले अपना हुनर दिखाकर कुछ कमाने की आस में चले आते थे। इस समय किसान भी फसल कटाई करके फुर्सत में और आनंदित रहते थे। कीर्तन, प्रवचन, गायन, नृत्य, रामलीला आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम पूरे कार्तिक माह चला करते। उस वर्ष अपनी मंडली के साथ गाँव में दाखिल हुआ, एक उत्कृष्ट गायक – सुंदर ।
सुंदर की तारीफें अजेयसिंह तक पहुँचीं और उनके आमंत्रण पर एक दिन हवेली में सुंदर की स्वर लहरियाँ गूँज उठीं। खास मेहमानों के साथ कमला भी श्रोताओं में उपस्थित थी। आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी सुंदर ने अपने दिव्य गायन से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। सुंदर के सुरों में कमला ऐसी खोई कि टकटकी लगाकर उसे देखती रह गई। हर गीत पर कमला की तालियाँ, उसके चेहरे से टपकती प्रशंसा ने सुंदर का ध्यान आकर्षित किया। यह सौंदर्य की मूरत है या साक्षात कला की देवी सरस्वती ? सुंदर का मन उसी क्षण अपना स्थान छोड़, कमला के पास चला गया था। उस रात सुंदर का हर गीत, हर सुर सिर्फ कमला के लिए था।  
नियत समय पर सारी कला मंडलियाँ पुरस्कार, इनाम पाकर अपने अपने स्थान को लौट चलीं किंतु सुंदर बीमारी का बहाना बनाकर गाँव में ही रुक गया। उसने गाँव में एक मित्र बना लिया था। उसी के घर रहता था। 
कुछ ही दिनों में गाँव के बाहर सूनी दोपहरी में क्षिप्रा तट पर एक अलग ही महफिल सजने लगी, सुंदर और कमला की गुप्त महफिल ! मिलन के मूक गीत, प्रेम के खामोश सुर और स्पर्श की मौन स्वर लहरिय़ाँ अमराई से लेकर क्षिप्रा तट तक बिखरने लगीं। सुंदर के प्रेम में आकंठ डूबी कमला कहाँ जान पाती कि उसके भाग्य में क्या बदा है ?
एक दिन एक वफादार नौकर ने देख ही लिय़ा और उनके प्रेमगीतों की गूँज ठाकुर अजेयसिंह के कानों तक पहुँच ही गई। उसी रात हवेली में सुंदर और कमला के प्रेम की चिता तैयार की गई। हवेली के पीछे बाग में सुंदर के शरीर से चमड़ी उधेड़ी जा रही थी तो दूसरी ओर पुआल की कोठरी में कमला को मार - मार कर बेदम किया जा रहा था। 
उस रात के बाद सुंदर को किसी ने नहीं देखा। वह कहाँ गया, पूछने का ना किसी में साहस था ना जरूरत थी। जिसे जरूरत थी, वह जब होश में आई तो उसके होठ हिलकर रह गए। उस रात के बाद कमला कभी नहीं बोली। खौफ ने उसकी वाणी को छीन लिय़ा था।

कुछ दिनों की कानाफूसी के बाद गाँव की जिंदगी अपने ढ़र्रे पर आ गई लेकिन कमला जीवन भर उसी एक रात को भोगती झेलती रही। एकांत को उसने अपना चिरसंगी बना लिया था। आया उमादेवी के स्नेह ने उसे मरने से तो बचा लिया था किंतु वह जीवित लाश-सी बनकर रह गई थी। अजेयसिंह से अपनी लाडली बेटी की यह दशा देखी नहीं जाती थी। कभी - कभी उन्हें लगता कि उन्होंने कमला के साथ अच्छा नहीं किया। कमला के मनोरंजन के लिए उन्होने अपने प्रयत्नों में कोई कमी नहीं छोड़ी लेकिन वह तो पाषाण हो गई थी जैसे.....
कुछ वर्ष बीते। फिर कब कमला हवेली की चौखट पार कर बाहर आने लगी, कब सुबह से साँझ तक क्षिप्रा तट पर बैठने लगी, किसी को याद नहीं। कभी - कभी वह गाँव में आ निकलती….उसके हाथ में एक गठरी होती, जिसमें क्या था, किसी को पता नहीं। बच्चे पगली - पगली कहकर चिढ़ाते तो मारने दौड़ती और वापस नदीतट पर जाकर बैठ जाती। दोपहर को उमादेवी उसे जबरन घर ले जाकर कुछ खिला - पिला देतीं। दोपहर बाद पुनः कमला नदिया किनारे पत्थर पर बैठी पाई जाती। साँझ ढलने पर उमादेवी उसे ले जातीं। उसे कैद करके रखने की कोशिश की गई तो उसने अन्न जल ही त्याग दिया। लाचार होकर सबने उसे अपने हाल पर छोड़ दिया।
कई वर्ष बीत गये। अजेयसिंह पर वृद्धावस्था का प्रभाव दिखाई देने लगा। उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। कमला के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। परिवर्तन सिर्फ भौतिक शरीर में आया। सौंदर्य की प्रतिमा कमला अब कुरूप लगने लगी। बड़ी - बड़ी खूबसूरत आँखें गड्ढों में धँस गईँ। तपे कुंदन सा रंग साँवला पड़ गया था। कुछ नहीं बदला था, तो काले-घने मेघों सी वह घुटनों तक पहुँचती केशराशि.....
एक दोपहर वृद्ध अजेयसिंह लाठी टेकते हुए क्षिप्रा किनारे पहुँचे। अपराध बोध से वे भी टूट चुके धे अंदर ही अंदर….. 
धीमे – धीमे चलते कमला के पास जाकर बैठ गए। कमला ने एक बार नजर उठाकर उन्हें देखा। फिर उसी तरह निर्विकार बैठी, बहते जल को ताकती रही। अजेयसिंह ने कमला के कंधे पर हाथ रखकर कहा, “बिटिया, मुझे माफ कर दो।"
कमला ने अपनी सूनी आँखें पिता की नजरों में उतार दीं। उस दृष्टि से अजेय सकपका गए। उस दृष्टि का सामना करने की अजेयसिंह में हिम्मत नहीं थी। निगाहें शून्य में गड़ाकर, अपना काँपता हाथ कमला के सिर पर फेरते हुए बोले - "बिटिया, मेरे जाने की घड़ी नजदीक आ रही है। मेरे पीछे तुझे कौन सँभालेगा ? तेरी चिंता से बँधे ये पापी प्राण मुक्त नहीं हो पाएँगे....साँसें अटकेंगी मेरी तुझमें!!! सुंदर कभी नहीं आएगा, मर चुका है वह.....मैंने ही मरवा दिया था उसे...."
अचानक ना जाने क्या हुआ, विक्षिप्त से अजेयसिंह खड़े हुए, कमला के कंधों को पकड़ उसे झकझोरकर अट्टहास करते हुए बोले, " सुन रही है तू ? मैंने ही मरवा दिया था उसे!"
फिर कुछ क्षणों बाद वह विक्षिप्त अट्टहास कातर रुदन में बदल गया.....
पर कमला वैसी ही बैठी रही....निर्विकार और सुन्न!!! पत्थर की मूरत !!!
पगलाए से अजेयसिंह शिथिल कदमों से लौट गए।

साँझ ढलने से कुछ पूर्व, अपनी गठरी को सीने से चिपकाए कमला क्षिप्रा की गहरी धार में उतरती  चली गई.....
गाँव के बालक कभी-कभी पूछते – ‘वह पगली कहाँ चली गई?’
………  

13 टिप्‍पणियां:

  1. उफ् ! कितनी मार्मिक कहानी !!

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  2. ओह्ह दी रूला दिया आपने।
    बेहद खूबसूरती से भाव बुन डालें हैं दी आपने।
    पात्रों में डूबी हूँ और क्या कहूँ दी मन में उतर गयी कहानी।
    पाठक मन विश्लेषण करने में सक्षम नहीं।

    सस्नेह
    सादर।

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  3. ओह!!!
    दिल को छूती बहुत ही मार्मिक कहानी क्षिप्रा की लहरें भी ज्यों आपके शब्दों में बँधकर रह गयी ....
    दोनों भाग पढने के बाद भी बंधा है मन कमला की भावभंगिमाओं में....
    लाजवाब कहानी ।

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  4. ओह! स्तब्ध हूं कमला की ये मर्मान्तक प्रेम कथा पढ़कर। कथा इतनी कसे और सधे शब्दों में ढाली गई है कि जीवन्त होकर आँखों में साकार हो गई। दोनों भाग शानदार और रोमांच से भरपूर अंत में अनकहा दर्द दे जाते हैं। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं प्रिय मीना। अब गद्य की तरफ़ फिर से मुड़ो।

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  5. पुरानी हवेलियों की शानों-शौकत के बीच कितनी मासूम जिंदगियां दबाई गई है इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है और राज शाही का ये रौद्ररूप कितने प्रेम कहनियों का इतना दर्दनाक अंत कर चुकी है। मीना जी आपने कहानी का समा ऐसे बांधे रखा कि वो जीवंत हो चूका था कि पढ़ते-पढ़ते मैं कमला के चुलबुलेपन के साथ-साथ उसके बेइंतहा दर्द को भी महसूस करने लगी थी। हृदयस्पर्शी कहानी और लाजबाब लेखन शैली ,सादर नमन आपको

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  6. सस्नेह आभार प्रिय कामिनी

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