कवि मैथिलीशरण गुप्त जी की सुप्रसिद्ध कविता है -
'नर हो ना निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
जग में रहकर कुछ नाम करो,
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो ?
जब हम ‘नर हो, न निराश करो मन को’ पंक्ति को सुनते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई हमें चुनौती देते हुए कह रहा हो कि मानव होकर तुम सांसारिक जीवन की छोटी कठिनाइयों से घबरा जाते हो क्योंकि तुमने अभी तक जीवन की बाधाओं का सामना करना नहीं सीखा है।
हम मनुष्य हैं और वीरता हमारे पास है। एक बार की असफलता से इस तरह से निराश नहीं होना चाहिए हमें परिस्थितियों का डटकर सामना करना चाहिए। एक छोटी सी चिड़िया भी कभी भी हार नहीं मानती है, वह अपने घोंसले को बनाने के लिए बहुत मेहनत करती है। दूसरी तरफ मनुष्य होता है जो छोटी-छोटी बात पर निराश होकर बैठ जाता है उसे कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने तक परिश्रम करते रहना चाहिए।
क्योंकि –
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती।
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।।
जब कोई इंसान अपने लाभ या उन्नति के लिए काम करता है तो उसकी ताकत होता है उसका मानसिक बल। किसी विद्वान् ने कहा है – मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। जब तक मनुष्य को अपने मानसिक बल पर विश्वास होता है उसे कोई नहीं हरा सकता है, लेकिन जब मन मर जाता है तो व्यक्ति भी हार जाता है।
मन मनुष्य की समस्त शक्तियों का केंद्र है. किसी भी मनुष्य के व्यक्तित्व का दर्पण उसका मन ही है. कहा भी गया है –
तोरा मन दर्पण कहलाए,
भले बुरे सारे कर्मों को,
देखे और दिखाए,
तोरा मन दर्पण कहलाए..
इसी मानसिक बल के आधार पर हनुमानजी ने विशाल सागर को पार कर लिया था। नेपोलियन और गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसी बल के आधार पर अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। हमारे वीर क्रांतिकारी यदि निराश होकर बैठ जाते तो क्या हम आजादी हासिल कर पाते ?
विश्व विजय प्राप्त करने वाले सिकंदर की सफलता का राज यही था कि उसने मन में विश्वविजय की ठान रखी थी. वहीं जब उसका मन शिथिल हुआ, मन की हार ही उसके पराजय का कारण बनी. पराक्रमी महान सम्राट अशोक ने कलिंग जैसे वैभवशाली साम्राज्य को जीत लेने के बाद भी स्वयं को पराजित महसूस किया क्योंकि निरपराध लोगों के प्राण लेने के लिए उसके मन ने उसे उत्तरदायी ठहराया।
जैसी हमारे मन की हालत होती है हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी वैसा ही हो जाता है। जब हमारा मन प्रसन्न रहता है तो हमें प्रकृति का हर रूप सुंदर लगता है, मौसम सुहाना लगता है, सब कुछ शुभ और मंगलकारी लगता है किंतु अगर मन ही दुखी और निराश हो तो प्रकृति का हर रूप नीरस लगता है, सब चीजें विकृत रूप में नजर आने लगती हैं.
कहने का तात्पर्य यह है कि मन की सबलता ही व्यक्ति की सबलता है. शारीरिक रूप से हट्टा कट्टा व्यक्ति भी निर्बल ही कहलाएगा यदि उसका मन निर्बल हो।
अतः हमें स्वयं को बार बार याद दिलाते रहना चाहिए कि -
नर हो, ना निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने मनुष्य को कर्ममार्ग पर चलने के लिए कहा है। हमें अपने मन की शक्तियों को पहचानकर, उन्हें अपने लक्ष्य पर केंद्रित करके कर्म में जुट जाना चाहिए। ईश्वर ने हमें यह सारा संसार दिया है, सारे संसाधन हमारे पास हैं। इस दुनिया में दशरथ मांझी जैसे लोग भी हुए हैं जिन्होंने अपने परिश्रम से पर्वत को काटकर समतल कर दिया।
विपरीत परिस्थितियों से लड़कर सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँचने वाले नरवीरों के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं और वर्तमान में भी ऐसे दृढनिश्चयी लोगों की संसार में कमी नहीं है।
हमें कोई मार्ग दिखाएगा तब हम उस पर चलेंगे, ऐसा सोचकर निठल्ले बैठे रहनेवालों का जन्म व्यर्थ ही चला जाता है। अतः उठो, और अपने लिए मार्ग का निर्माण स्वयं ही करो।
कवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी कहा है :
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।।
गुन बड़े एक से एक प्रखर।
हैं छिपे मानवों के भीतर।।
अगर मानव परिश्रम और साहस करना ही छोड़ देगा तो उसका समाज में विकास कैसे होगा? उसके लिए हर तरह की उन्नति के रास्ते बंद हो जायेंगे। इसीलिए मनुष्य को अपने मनुष्यत्व को सिद्ध करना ही होगा। कहते हैं ना कि भगवान भी उनकी ही मदद करता है जो अपनी मदद खुद करते हैं।
अगर कर्मठ लोग निराशा को हावी होने देते तो हमारे देश में और संसार में वो सब विकास आज तक हुए ही न होते जो अब तक हुए हैं।
इसी वजह से कहा गया है कि नर होकर मन को निराश मत करो। निराशा की वजह से जीवन अंधकार से भर जाता है।
अंत में इन पंक्तियों के साथ मैं उत्साह और आशावाद का आह्वान करती हूँ –
राह में मुश्किल होगी हजार,
तुम दो कदम बढाओ तो सही।
हो जाएगा हर सपना साकार,
तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।।
मुश्किल है पर इतना भी नहीं,
कि तू कर ना सके।
दूर है मंजिल लेकिन इतनी भी नहीं,
कि तू पा ना सके।
तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 29 अगस्त 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत प्रेरक रचना है यह मीना जी आपकी। किसी भी निराश मन को आशा से भर दे, ऐसी। आभार एवं अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-8-21) को "बाँसुरी कान्हां की"(चर्चा अंक- 4171) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सुंदर और प्रेरणादायी रचना , बहुत बधाइयाँ आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंसंघर्ष करने को प्रेरित करती बेहतरीन पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंप्रेरणा का संचार करती बहुत सुंदर रचना,मीना दी।
जवाब देंहटाएंप्रिय दी,
जवाब देंहटाएंप्रणाम।
प्रसिद्ध कवियों की रेखांकित कृतियों का विश्लेषात्मक विवेचन सकारात्मक ऊर्जा से ओत-प्रोत है।
अत्यंत प्रेरक सराहनीय प्रयोग।
सप्रेम
सादर।
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने..।
जवाब देंहटाएंनव प्रयोग हमे नव चेतना दे गया मीना जी, ऐसे सार्थक तरीके से आपने इन रचनाओं से हमे प्रेरित किया,जैसे कोई गुरु शिक्षित कर रहा हो बहुत आभार और नमन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और प्रेरक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआशा का दीपक प्रज्ज्वलित करती सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चिंतन।
ख़म ठोंक ठेलता है
जवाब देंहटाएंजब नर पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।।
गुन बड़े एक से एक प्रखर।
हैं छिपे मानवों के भीतर।।
बहुत ही प्रेरणादायक और उम्दा लेख!
खामोश हूँ आज कोई सवाल नहीं,
खुद से पूछे गुनाहों का कोई जवाब नहीं,
पर इतनी जल्दी हार मान जाऊँ,
ऐसी कोई चाह नहीं!
सुंदर, सार्थक रचना !........
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत सुंदर और प्रेरक रचना ।आदरणीया शुभकामनाएँ ।
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