शनिवार, 25 जनवरी 2025

वटवृक्ष ओर जूहीलता

 

गाँव की कच्ची पगडंडी के किनारे बहुत से वृक्ष थे. नीम, पीपल, कनेर, बहुत सारे. पर उनमें खास था एक बरगद का पेड़ - बहुत बड़ा, विशाल और बहुत ही पुराना. इस बरगद की छाँव बहुत शीतल होती थी. इतनी शीतल कि गर्मी में लू की यहाँ फटकने की हिम्मत भी नहीं होती थी. जानें कितने प्राणी, कितने जीव उस वटवृक्ष की छाया में विश्राम पाते, आश्रय लेते और कई तो थकान मिटाकर, अपनी आगे की राह चल देते.

 कुछ का तो स्थायी निवास भी था उस पर. कीड़े - मकोड़े, पंछी, गिलहरियाँ, बंदर सभी अपनी - अपनी गतिविधियों से वटवृक्ष की गंभीरता भंग करते थे. पर फिर भी वह वटवृक्ष निर्विकार, निश्चल खड़ा सबको अपना अपना हक लेने देता

.....बिना माँगे भी ...

एक खुशनुमा सुबह वटवृक्ष की निगाह अपनी जड़ों पर गई. अक्सर वहां सूखे पत्तों का ढेर लगा रहता था, वहां कुछ कीड़े - मकोड़े, चींटे रेंगते रहते . कुछ गिलहरियाँ चहल कदमी करती रहती थी. लेकिन आज वहाँ कुछ नया था ! चार नन्हीं - नन्हीं नई हरी चमकती पत्तियाँ और जड़ों के सहारे ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करती कच्ची कोंपलें !

वटवृक्ष ने सोचा, ओह! ये तो कोई बेल है, यह यहाँ कैसेऔर कब उग आई ? चलो अब जो भी हो, जैसे भी हो अब आ गई है तो अब इसे सँभालना मेरा कर्तव्य है. यही सोच कर वटवृक्ष ने अपनी एक शाखा से उस बेल के निकट कुछ पत्ते टपकाए जिससे कि वह उन शैतान प्राणियों की नजर से छुपी रहे. उसे डर था कि ये शैतान प्राणी कहीं बेल को तोड़ ना दें.

बेल की सुरक्षा अब वटवृक्ष का रोजाना का काम हो गया था. धीरे - धीरे उस वटवृक्ष के पत्तों की आड़ में संरक्षित वह बेल लटकती जटाओं - जड़ों के सहारे बढ़ने लगी. कुछ ही दिनों में वह वटवृक्ष की लाड़ली बन गई. गंभीर रहने वाले उस वटवृक्ष के चेहरे पर भी खुशी झलकने लगी. सभी प्राणी भी इस परिवर्तन से हतप्रभ थे और सोचते कि इसका राज क्या है?

जब बेल वटवृक्ष पर  थोड़ा ऊपर पहुँची तो वटवृक्ष को पता चल गया कि यह तो जूहीलता है और समय आने पर यह सुंदर, सुवासित फूलों से इस परिसर को महकाएगी. पर वटवृक्ष  को इस बात की चिंता थी कि वह यहाँ बचकर कैसे रह पाएगी. क्या यह शैतान प्राणी इसे जीने देंगे ?

वानरसेना की उछलकूद और गिलहरियों की भागदौड़ से अब वटवृक्ष की साँस अटक सी जाती. ना जाने कब टूट जाए वह छोटी सी बेल इन शैतानों की धमाचौकड़ी में !

उधर जूही के नन्हें ओठों से शब्द फूटने लगे. वह रात - रात भर वटवृक्ष से बातें करती. कभी मूक मौन संवाद चलता, कभी खामोशी बोलती और कभी नाजुक पत्तों की ह्ल्की सरसराहट वटवृक्ष के कानों में कुछ कह जाती.

जूही अपनी धुन में वटवृक्ष के साथ जुड़ती, उसकी शाखाओं से लिपटती बढ़ती जा रही थी. बिछड़ना क्या होता है इससे बिल्कुल बेखबर ! किंतु वटवृक्ष ने दुनिया देखी थी, बिछोह की कल्पना थी उसे !

इसीलिए वह नित्य प्रभु से प्रार्थना करता कि जूहीलता को कोई योग्य संरक्षक मिल जाए. कुछ समय पहले ही उसने खुद सुना था कि यहाँ एक पक्की सड़क बनने वाली है और उसके लिए कुछ पेड़ काटे जा सकते हैं . हो सकता है उसे भी अपनी कुर्बानी देनी पड़े !

वह चिंतित था क्योंकि वानर, गिलहरी व अन्य कीड़े मकोड़े तो अपना निवास बदल लेंगे, पर इस जूही के लिए ऐसा संभव न था . आखिर उसकी प्रार्थना भगवान ने सुन ली .एक दिन उस राह एक राहगीर गुजरा. थकाहारा वह भी सबकी तरह वटवृक्ष की छाँव तले आराम करने लगा. वटवृक्ष की शीतल छाँव में कुछ ही देर में उसे नींद आ गई. जब आँख खुली तो उसकी नजर अचानक जूहीलता पर पड़ी.

अरे ! यह इतनी सुंदर बेल यहाँ ? यहाँ तो यह ऐसे ही नष्ट हो जाएगी, इसे तो मेरे उद्यान में होना चाहिए ....

बस! फिर क्या था? उस राहगीर ने जूहीलता को जड़ों से उखाड़ लिया कि वह उसे ले जाकर अपने उद्यान में रोप सके. जूहीलता को वटवृक्ष से बिछड़ना मंजूर न था. पर कौन सुनता उसका क्रंदन ? वटवृक्ष से गुहार लगाई किंतु वह तो शाँत खड़ा रहा... निश्चल.... निर्विकार ...!

जूहीलता के कुछ हिस्से वटवृक्ष में ऐसे उलझे लिपटे थे कि उन्हें तोड़ देना पड़ा. जूही का क्रंदन बढ़ता गया. एक छूटने का दर्द और दूसरा टूटने का ! वटवृक्ष तो खामोश खड़ा था. उसने राहगीर को रोकने की कोशिश तक नहीं की.

 उस अजनबी ने जूही को अपने साथ ले जाकर अपने खूबसूरत उद्यान के सबसे सुंदर स्थान पर लगा दिया. रोज पानी देता और जूहीलता का खास ख्याल करता लेकिन....
क्या जी पाएगी जूहीलता उस नए सुरक्षित स्थान पर?

       .....साँसें तो वहीं रह गईं थीं !!!

( चित्र गूगल से साभार )

काश !

 

काश....

"माँ, नदी देखने चलोगी ?"

मेरे बीस वर्ष के बेटे ने ये सवाल किया तो लगा सचमुच वह बड़ा हो गया है । वह अच्छी तरह जानता है मुझे नदी देखना कितना अच्छा लगता है।

बारिश के मौसम में उफनती नदी को देखना ऐसा लगता है मानो किसी ईश्वरीय शक्ति का साक्षात्कार हो रहा हो । रेनकोट पहनकर मैं तुरंत तैयार हो गई । तेज बारिश हो रही थी। दस मिनट में हम पुल पर थे जिसके नीचे से उल्हास नदी अपने पूरे सौंदर्य और ऊर्जा के साथ प्रवाहमान हो रही थी ।

"बाबू , चल ना दो मिनट किनारे तक चलें, कोई रास्ता है क्या
नीचे उतरने का ?" मैंने पूछा।

"हाँ , है तो । लेकिन सिर्फ दो मिनट क्योंकि इस समय काफी सुनसान रहता है वहाँ नीचे। पुल के ऊपर से आप चाहे जितनी देर देख लो ।"

पुल से नीचे उतरने वाली ढलान पर गाड़ी रोक कर लॉक की और हम नीचे उतर कर नदी के किनारे खड़े हो गए ।

उस वक्त नदी में कल-कल का संगीत नहीं था, घहराती हुई गर्जना थी .. तभी कुछ दूरी पर किनारे बैठे युवक की ओर ध्यान खिंच गया । वह घुटनों में सिर छुपाए बैठा था । दीन - दुनिया से बेखबर !

मैंने बेटे की ओर देखा लेकिन मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरा समझदार सुपुत्र बोल उठा, "बस, अब आप कुछ कहना मत । वह लड़का वहाँ क्यों बैठा है, कौन है , ये सब मत पूछना प्लीज.. अब जल्दी चलें यहाँ से।"

"लेकिन वह अकेला क्यों बैठा है ? डिप्रेशन का शिकार लग रहा है बेचारा।"
     
"कुछ नहीं डिप्रेशन - विप्रेशन । ये अंग्रेज चले गए डिप्रेशन छोड़ गए । जिम्मेदारियों से भागने का सस्ता और सरल उपाय! बस डिप्रेशन में चले जाओ । आप नहीं जानतीं। ये चरसी या नशेड़ी होगा कोई । आप चलो अब ।"

"अरे , मैं नहीं बात करूँगी, तू तो एक बार पूछ कर देख। शायद उसे किसी मदद की जरूरत हो ।"

"नहीं ममा, आप चलो अब । बारिश बढ़ गई है और यह जगह
कितनी सुनसान है ।" अब बेटे के स्वर में चिढ़ और नाराजगी साफ जाहिर हो रही थी ।

मजबूर होकर मैं घर चली आई । घुटनों में सिर छुपाए बैठा वह लड़का दिमाग से निकल ही नहीं रहा था ।

अगले दिन.....सुबह सैर के लिए निकली । पड़ोस के जोगलेकर जी हर सुबह नदी किनारे तक सैर करके आते हैं । मैं नीचे सड़क पर आई तो वे मिल गए । हर रोज की तरह प्रफुल्लित नहीं लग रहे थे ।  मैंने पूछा -- "क्या बात है भाई साहब, तबीयत ठीक नहीं है क्या ?"

थके से स्वर में बोले, "क्या बताऊँ, सुबह-सुबह इतना दुःखद दृश्य देखा । नदी से दो लाशें निकाली हैं पुलिस ने । एक लड़के और लड़की की । आत्महत्या का मामला लग रहा है ।"

मेरा सिर चकरा गया । घुटनों में सिर छुपाए वह लड़का आँखों के सामने घूम गया । कहीं वही तो नहीं.....

जिंदगी में अनेक बार ऐसे प्रसंग आए हैं जब घटना घटित हो जाने के बाद सोचती रह गई हूँ --

काश.......
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एक रोमांचक अनुभव

 


श्रावण महीने का दूसरा रविवार...मेरी बहनों ने भीमाशंकर जाने का प्रोग्राम बनाया। मेरी भी कई बरसों की इच्छा पूरी हुई। हमारा आठ लोगों का ग्रुप बन गया था। मेरे और मेरी छोटी बहन के पति, एक सहेली, बहन और सहेली की सास को मिलाकर ।

  सुबह के ताजगीभरे समय में यात्रा करने का अलग ही मजा होता है।उसपर बारिश लगातार हो रही थी।रास्ते की हरियाली, मालशेज घाट के झरने और जंगल का सौंदर्य निहारते हम भीमाशंकर पहुँच गए जो बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।

   बारिश से बचने के लिए वहाँ छाता कोई काम नहीं आता, तेज हवा से उलट जाता है। खैर भीगते-भीगते हम मंदिर पहुँचे।मंदिर पहाड़ों से घिरा हुआ है। बादल जैसे धरती पर उतर आए थे। आप से पाँच-छः फुट दूर खड़ा इंसान आपको न दिख सके, इतनी धुंध !

    बड़ी देर तक कतार में लगकर हम मंदिर के अंदर पहुँचने ही वाले थे कि कुछ लोग चिल्लाए, "साँप, साँप...!" लोग घबराहट में लोहे की रेलिंग पर चढ़ने लगे, जो अक्सर मंदिरों में कतार में खड़े रहने के लिए बनाई जाती है। घबरा तो मैं भी गई मगर अचानक किसी दैवी प्रेरणा से मैंने लोगों को भगदड़ मचाने से रोकना शुरु किया ।

   लोग जहाँ से जगह मिले, भागने की कोशिश में थे।बूढ़े और बुजुर्ग लोग भी थे वहाँ। मैं और मेरी सहेली लोगों को चिल्ला-चिल्लाकर नीचे उतरने और भगदड़ न मचाने के लिए प्रार्थना करते रहे । लोगों पर हमारी बात का असर हो रहा था क्योंकि मैंने उनसे कहा कि साँप काटने से कोई मरे ना मरे, भगदड़ मच गई तो कितनों की जान जाएगी ?

     ओम नमः शिवाय का जोर-जोर से जाप करते लोगों ने देखा कि साँप ने हजारों की भीड़ में से अपना रास्ता बना लिया और मंदिर की दीवार के नीचे एक छेद में गुम हो गया ।

   लोगों की समझदारी से कहें या ईश्वर की महिमा से, पर कोई अप्रिय घटना नहीं हुई । मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया।
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जब हम बने सर्पमित्र

 

जब हम बने सर्पमित्र !
(डायरी 2 sep 2017)
 दोपहर 1.30 बजे स्कूल से लौटी। बिल्डिंग के नीचे पार्किंग एरिया दोपहर के वक्त खाली होता है, वहीं से गुजरकर लिफ्ट की ओर बढ़ते समय पाया कि 12 से 15 वर्ष के चार लड़के एक कोने को घेरकर बड़े ध्यान से कुछ देख रहे हैं।

उत्सुकतावश वहाँ जाकर देखा तो पाया कि बच्चों ने कोने में दीवार का आधार लेकर दो साइकिल लगा रखी थीं और उनके पीछे ठीक कोने में साँप !
साँप गोलमटोल गठरी सा होकर कोने में पड़े पत्थर के पास गहरी नींद का आनंद ले रहा था और बच्चे 'मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाय, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाय' वाली मुद्रा में चर्चा कर रहे थे।

मैंने बच्चों को दूर किया और वाचमैन को बुलाया। वाचमैन काका सीधे एक बड़ा सा पत्थर पटककर साँप का क्रियाकर्म कर देने के पक्ष में थे, मैं उसे पकड़कर कहीं दूर छोड़ देने के पक्ष में थी, लड़के मेरे पक्ष में हो गए थे। साँप जी हमारे इरादों से बेखबर स्वप्नलोक में खोए रहने के पक्ष में थे।

इस कॉलोनी को बने हुए अभी तीन वर्ष ही हुए हैं और मुझे यहाँ आए दो वर्ष। पाँच सात साल पहले तक इस जमीन पर घने पेड़ पौधे थे जिन्हें हटाकर यह बस्ती बसाई गई। साँप हर बारिश में निकलते रहते हैं यहाँ, पीछे का परिसर अब भी जंगल सा ही है।

वाचमैन ने कहा,"मैडम, अब तक पाँच मार चुके हैं हम! आपको क्या पता, आप तो सुबह जाते हो रात को लौटते हो।" मैं - "हाँ काका, मारे होंगे आपने पाँच पर ये तो मेरे सामने आ गया। मैं कोशिश करती हूँ कि कोई इसे पकड़कर दूर छोड़ दे।"

मैंने शैलेश सर को फोन किया जो क्लासेस में विज्ञान पढ़ाते हैं। शायद उनके पास किसी सर्पमित्र (snake rescuer) का नंबर हो। सर ने पाँच मिनट में ही एक सर्पमित्र का नंबर मैसेज किया। उसे फोन करने पर पता चला कि वह बाहर है और कल लौटेगा।

अब मैं क्या करूँ? साढ़े तीन बजे मुझे क्लासेस जाना था। उसके पहले खाना बनाना और खाना भी था। तभी मेरा बेटा अतुल कालेज से लौट आया। अब मेरे पक्ष में पाँच लोग हो गए।

इस बीच वहाँ से दो तीन महिलाएँ गुजरीं और वाचमैन को साँप मारने का निर्देश देकर चली गईं। साँप की प्रजाति पर भी अटकलें लगाईं गईं।
अब हमने स्वयं ही सर्पमित्र बनने का निश्चय कर लिया।

मैं साँप को अतुल के भरोसे छोड़कर घर गई और एक ढक्कन वाली बास्केट, एक कॉटन की चादर और एक झाड़ू लाई। उस वक्त यही समझ में आया।       
आसपास इतनी हलचल होने पर भी साँप का यूँ सोते रहना असामान्य बात थी। कहीं मरा हुआ तो नहीं? एक रिस्क ली। झाड़ू के पिछले डंडे से साँप को स्पर्श किया तो वह थोड़ा सा हिलकर फिर शांत हो गया, जैसे छोटे बच्चे माँ के जगाने पर 'उँहूँ ! अभी नहीं !' कहकर करवट बदलकर फिर सो जाते हैं।

तब तक अतुल ने वाचमैन का डंडा लिया।आसपास निरीक्षण करने पर एक धातु का तार पड़ा मिल गया। तार को मोड़कर हुक की तरह बनाकर डोरी से डंडे के सिरे पर बाँधा गया। तब तक लड़कों ने साँप के फोटो, वीडियो खींच लिए। वाचमैन 'ध्यान से, सावधानी से' कहता जा रहा था।

अतुल ने टोकरी को साँप के पास आड़ी पकड़कर हुक से साँप को झट से उठाकर टोकरी में डाल दिया और मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला - "अरे वाह !" टोकरी का ढक्कन तुरंत बंद कर दिया गया। टोकरी के हिलते ही साँप महाशय अपनी गहन निद्रा से जाग गए और पूरा शरीर खोलकर दिखाया - देखो, इतना भी छोटा नहीं मैं !

बंद टोकरी को पकड़कर एक लड़का अतुल के पीछे बाइक पर बैठा । वह नहीं जाता तो इस एडवेंचर के लिए मैं तैयार थी। साँपजी ने भी बाइक की सवारी का अनुभव पहली बार लिया होगा। कुछ ही देर में दोनों बच्चे साँप को नदी किनारे विदा कर आए जो यहाँ से 10 मिनट की ड्राइविंग पर ही है।

   घर लौटने पर मैंने अतुल से पूछा क्या उसे डर नहीं लगा ? तब उसका जवाब था कि बचपन में डिस्कवरी चैनल ज्यादा देखा था ना, इसलिए डर नहीं लगता।
मोगेम्बो (अतुल) खुश है साँप को 
पिंजरे में बंद करके !
गहरी नींद में 
बाइक की सवारी करते साँप महाशय

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